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मृत्युंजयी आचार्य भिक्षु
१७१ पहला चातुर्मास का स्थल था--अंधेरी ओरी। लोगों ने यह स्थान इसलिए बताया कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ।' भीखणजी केलवा गांव में आ गए। लोगों ने सोचा, निकालेंगे तो लोग बुरा कहेंगे। ऐसा काम करें कि बिना मारे ही ये मृत्युधाम पहुँच जाएं। 'अंधेरी ओरी' का स्थान ऐसा था । जहाँ जो रात को रहा वह सवेरे मरा मिला। भीखणजी वहां रात में रहे, पर मरे नहीं। जो मरकर अमर बन जाते हैं, वह कैसे मरें । वे कभी मरते ही नहीं। मौत का भय उन्हें नहीं लगा। लोगों ने पहले यक्ष का भय, भूत का भय दिखाया । पर वे अभय थे, किसको भय था भूत का। ____ आज हम आचार्य भिक्षु को एक महान् तपस्वी, महान् मनीषी, महान् दार्शनिक, महान् द्रष्टा, महान् चेतना के धनी और रहस्यमयी व्यक्तित्व के पुंज के रूप में जानते-मानते हैं। इस चित्रण का श्रेय है श्री मज्जयाचार्य को। वे उनके महान् भक्त और व्याख्याकार थे । यदि वे नहीं होते और होकर भी अतीत का आकलन नहीं करते और आकलन करके भी यदि उसकी व्याख्या नहीं करते, संगति नहीं बिठाते तो आचार्य भिक्षु का वह अनोखा व्यक्तित्व छिपा ही रह जाता। . वे तेरापंथ दर्शन के प्रेणता ही नहीं थे, वे हजारों-हजारों व्यक्तियों के इष्ट भी थे। उनका नाम 'मंत्ररूप' बन गया । भिक्षु-इस शब्द की संरचना या ध्वनि ऐसी है कि यह मंत्रवत् प्रभावक हैं । मंत्र और कुछ नहीं, शब्द-संयोजना और ध्वनि का ही तो चमत्कार है। ___आचार्य भिक्षु निरन्तर तूफानों का सामना करते रहे, निरन्तर समस्याएं आती रहीं, और वे तूफानों को चीरकर आगे बढ़ते रहे, समाधान देते रहे । तूफानों से घबराना उन्होंने सीखा ही नहीं था। जिसकी निष्ठा में तपस्या का तेज होता है, सत्य का बल होता है, वह संघर्षों में कभी नहीं घबराता । तूफान आते हैं, टकराकर बिखर जाते हैं । संघर्ष की चिनगारियां उछलती हैं, पर बुझ जाती हैं।
जयाचार्य ने भी संघर्ष और तूफानों का जिन्दादिली से सामना किया और प्रत्येक प्रहार को हंसते-हंसते झेला ।
आचार्य तुलसी का जीवन भी संघर्षों में पला है, पुष्ट हुआ है और तेजस्वी बना है। ____ तीनों समान हैं । आचार्य भिक्षु का तो यह वरदान ही है कि इस आसन पर आने वाला आचार्य भिक्षु बनकर ही बैठ सकता है, दूसरा नहीं। इस आसन पर
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