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मंगल सूत्र
और अपने अस्तित्व को उपलब्ध करने में संलग्न हो गयी, वह है साधु । साधु कोई व्यक्ति नहीं, साधु साधना का प्रतिरूप है । साधु का मतलब है- -साधना । जो आत्मा साधना में तत्पर है, उस आत्मा का नाम है- 'साधु' और जो आत्मा साधना करते-करते सिद्धि तक पहुंच गयी, उस आत्मा का नाम है – 'सिद्ध' ।
साधु प्रारम्भ है और सिद्ध निष्पत्ति । साधु से साधना प्रारम्भ होती है और सिद्ध तक पहुंचकर सम्पन्न हो जाती है । आत्मा की एक वह अवस्था जिसमें साधना का प्रारम्भ होता है और आत्मा की एक वह अवस्था जिसमें साधना करते-करते सिद्धि तक पहुंच जाएं, इस प्रकार हमारे दो ध्रुव बन गए। एक ध्रुव है— साधु और दूसरा ध्रुव है - सिद्ध. । अर्हत्, आचार्य, उपाध्याय – ये इन दोनों
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के मध्य में आ जाते हैं । साधु सबसे बड़ा पद है । मैं मानता हूं कि आचार्य का भी बड़ा महत्त्व है, किन्तु एक दृष्टि से साधु का ज्यादा महत्त्व होता है । यह बहुत बड़ा पद है । साधु से ही आचार्य निकलता है, साधु से ही उपाध्याय ही अर्हत निकलता है । आकाश से अर्हत् नहीं टपकता और न ही आचार्य और उपाध्याय आकाश से उतरते | सब साधु से ही निकलते हैं, साधना से ही निकलते हैं जो साधना के उत्कर्ष पर चले जाते हैं, वे आचार्य बन जाते हैं और जो ज्ञान की विशिष्ट साधना में चले जाते हैं, वे उपाध्याय बन जाते हैं ।
मूल दो ही हैं - साधु और सिद्ध । अर्हत् को भी सिद्ध बनना है, आचार्य और उपाध्याय को भी सिद्ध बनना है । अर्हत् भी साधु रहे हैं, आचार्य और उपाध्याय भी साधु रहे हैं । मूल दो ही ध्रुव हैं और ये तीन इन्हीं दो ध्रुवों के बीच में होते हैं। मूल बात है कि आत्मा को मंगल माना गया है। आत्मा ही उत्कर्ष भावना और साधना है । इसलिए उसे मंगल माना गया है ।
सबसे बड़ा मंगल होता है— आत्म-तत्त्व | आत्मा को हम समझें । ज्ञान मंगल, आनन्द मंगल और शक्ति मंगल । मन मंगल, वचन मंगल और काय मंगल- ये हमारे मंगल हैं। मन मंगल भी बनता है और मन अमंगल भी बनता । मन, वचन और काय - ये जब वश में हो जाते हैं तो मंगल बन जाते हैं और वश में नहीं होते हैं तो ये अमंगल बन जाते हैं ।
हैं
एक व्यक्ति गुरु के पास गया और बोला, “गुरुदेव ! कोई ऐसा मंत्र बताएं जिससे देवता भी मेरे वश में हो जाएं। "
ने
कहा, “तुम्हारे नौकर-चाकर तुम्हारे वश में हैं ?”
गुरु “नहीं । ”
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