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जिज्ञासितं : कथितं
१४१ ही बिन्दु पर पहुँचकर अपनी यात्रा सम्पन्न करते हैं, वैसे ही दो भिन्न दिशाओं से निकलने वाले प्रवाह एक दिशा में पहुंचकर अपने अस्तित्व को एक-दूसरे में विलीन कर देते हैं। इस दृष्टि से प्रारम्भ में दोनों प्रवृत्तियों के बल देने के लिए शक्ति को विकेन्द्रित रूप में नियोजित करना ही अच्छा है।"
- आप प्रेक्षा और अणुव्रत को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं तो क्या अब तक बने अणुव्रतियों के लिए प्रेक्षाध्यान को अनिवार्य रूप से लागू किया गया? यदि नहीं तो उनकी वृत्तियों के बदलाव का दूसरा रास्ता क्या है ? _ "राणावास चातुर्मास में अणुव्रत-प्रेक्षा शिविर' के रूप में जो नया उपक्रम शुरु हआ, उसका यही तो उद्देश्य था। प्रत्येक अणव्रती के लिए प्रेक्षाध्यान के प्रयोग की अपेक्षा अब सघन रूप से महसूस की जा रही है । जब तक इस अपेक्षा को पूरा नहीं किया जाएगा, वांछित परिणामों के सामने एक प्रश्नचिन्ह लगा रहेगा।"
-हमारे यहां कभी अणुव्रत सम्मेलन होता है, कभी आदिवासियों का सम्मेलन । कभी डाक्टरों का सेमिनार होता है तो कभी प्रोफेसरों का। कभी विद्यार्थियों को लक्ष्य में रखकर अभियान चलाए जाते हैं और कभी व्यापारियों को। इस विकेन्द्रित शक्ति को सलक्ष्य किसी एक ही अभियान में खपाया जाय तो क्या विशिष्ट उपलब्धि की संभावना नहीं है ? ___इस बात से मैं पूर्णतः सहमत हूँ कि केन्द्रित कार्य अनेक नहीं होने चाहिए। परिधि में अनेक प्रवृत्तियाँ चल सकती हैं, पर केन्द्र में एक-दो बात को ही स्थान मिलना चाहिए। हमारा केन्द्रीय कार्यक्रम है अध्यात्म का विकास । अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान आदि प्रवृत्तियाँ इसी केन्द्र की परिक्रमा करती हैं । कुछ कार्य सामयिक परिस्थिति के अनुसार आवश्यक हो जाते हैं, उन्हें टाला नहीं जा सकता । मूल बात एक है कि कोई भी व्यक्ति या समूह कितनी ही प्रवृत्तियों का संचालन करे, वे प्रधान लक्ष्य से विभिन्न नहीं होनी चाहिए।"
घड़ी में साढ़े पांच बज रहे थे। युवाचार्यश्री को शायद किसी दूसरी प्रवृत्ति में संलग्न होना था। इस भाव से अवगत होने पर भी मैंने अपना अगला प्रश्न जो कि नितान्त युवाचार्यश्री के वैयक्तिक जीवन से सम्बन्धित था, पूछना चाहा। युवाचार्यश्री बोले, “अधिक प्रश्न हों तो कल पूछ लेना ।” मैंने कहा, प्रश्न तो और भी हो सकते हैं, पर मैं दो प्रश्नों के साथ अपनी बात समाप्त कर दूंगी। युवाचार्यश्री उत्तर देने के मूड में थे, इसलिए मैंने पूछा
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