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अहिंसा तेजस्वी कैसे हो? अहिंसा की चर्चा बहुत हुई है । सौभाग्य है इस भूमि का जहां अहिंसा के स्वर तरंगित होते रहे हैं। साबरमती का आश्रम भी उन तरंगो से तरंगित है। कोई भी ध्वनि या तरंग व्यर्थ नहीं जाती है । चिरकाल तक वह अपना अस्तित्व बनाए रखती है। फिर इस वैज्ञानिक युग में इस बात को न मानने का कोई कारण नहीं कि यह आश्रम उन तरंगों से तरंगित नहीं है। आज उस ध्वनि- तरंग का एक प्रयोग किया जा रहा है । अहिंसा के एक महान प्रयोक्ता आचार्य श्री तुलसी उसी आश्रम में एक संकल्प के साथ उपस्थित हैं।
बहुत बार यह कहा जाता है कि अहिंसा का विकास होना चाहिए । जब-जब हिंसा की बाढ़ आती है, अहिंसा की मांग प्रबल हो जाती है। किन्तु एक बात हम भूल जाते हैं कि अहिंसा एक निष्पत्ति है, कोई मूलभूत कारण नहीं । हम हमेशा निष्पत्ति को ज्यादा चाहते हैं, उसकी पृष्ठभूमि में पलने वाली सामग्री को नहीं चाहते । यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है। अहिंसा के साथ यह नियति न जाने क्यों जुड़ी? अहिंसा का जीवन हम जीना चाहते हैं, किन्तु इसकी पृष्ठभूमि में जो समस्या है, उसका सामना करना नहीं चाहते । अहिंसा को तेजस्वी बनाने की बात आती है तो मैं सोचता हूँ कि अहिंसा शब्द को ही सामने लाने की बात नहीं रहेगी, उसके पीछे क्या करणीय है, उस पर भी हमारा ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। अहिंसा सार्वभौम की परिकल्पना के पीछे यही बात जुड़ी हुई है कि किस प्रकार का मनोभाव विकसित किया जाए कि अहिंसा अपने आप अवतरित हो पूरी तेजस्विता के साथ।
अहिंसा के विकास के लिए गहरी बात है हृदय-परिवर्तन की । प्राचीन काल से लेकर आज तक हृदय-परिवर्तन का अपना मूल्य है । हिंसा में विश्वास करने वाले लोग भी इन बातों पर बहुत महत्त्व देते हैं कि जब तक ‘ब्रेनवाश' नहीं किया जाता, तब तक आदमी को बदला नहीं जा सकता । तो, ब्रेनवाश आखिर क्या है ? हृदय-परिवर्तन ही तो है । मस्तिष्क की धुलाई, मस्तिष्क का परिवर्तन, यह तो नितान्त अपेक्षित माना जाता रहा है । केवल डंडे के बल पर ही शासन चलाने
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