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________________ अहिंसा की समस्याएं १२३ आकर्षित हो रहा है । हिंसा की प्रखरता ने अहिंसा को फिर से उपस्थित किया है। इस स्थिति का लाभ उठाना जरूरी है। हम हिंसा को एक स्वतंत्र प्रवृत्ति माने हुए हैं । अहिंसा की असफलता का यह पहला चरण हैं । हिंसा का मूल कारण है आर्थिक दुर्व्यवस्था । इस पर विचार किए बिना हम अहिंसा का मूल्यांकन नहीं कर सकते। हिंसा और परिग्रह इन दोनों में परिग्रह का स्थान पहला है, हिंसा का स्थान दूसरा है । इसी प्रकार अहिंसा और अपरिग्रह इन दोनों में अपरिग्रह का स्थान पहला है, अहिंसा का स्थान दूसरा है। अहिंसा परमोधर्मः की रट ने सचाई पर पर्दा डाल दिया। मनुष्य का शोषण करने वाला भी अपने आपको अहिंसक मान सकता है । यह अहिंसा की अवमानना ही है, यदि 'अपरिग्रहः परमोधर्मः' का स्थान पहला और 'अहिंसा परमोधा:' का स्थान दूसरा होता तो अहिंसा अधिक तेजस्वी बन पाती। अहिंसा की तेजस्विता प्रकट होनी चाहिए। सृजनात्मक शक्ति और प्रतीकात्मक शक्ति के बिना उसकी संभावना नहीं की जा सकती । आज हमने अहिंसा को कायरता का प्रतीक मात्र बना रखा है। अहिंसक आदमी में त्याग, बलिदान और मरने की तैयारी नहीं है। अहिंसा के विषय में पुनर्विचार की आवश्यकता है। उसका कार्यक्रम आधुनिक समस्याओं के सन्दर्भ में आयोजित है । शस्त्रीकरण जैसी भयंकर समस्या के प्रति विश्व-चेतना को जागृत करना, आर्थिक व्यवस्था की विषमता से होने वाली समस्याओं और उनसे फलित होने वाली हिंसा के प्रति जनता का ध्यान आकर्षित करना, मानसिक तनाव और अपराधी मनोवृत्ति के मूल में पनपने वाली हिंसा के विषय में अनुसंधान करना और उनकी रोकथाम के लिए उपाय सुझाना आदि-आदि अहिंसा को तेजस्वी बनाने के उपाय हैं । अहिंसा के लिए संवेदनशीलता का विकास जरूरी है, पर आज केवल उसी के आधार पर अहिंसा को व्यापक और शक्तिशाली नहीं बनाया जा सकता । वैज्ञानिक युग की पृष्ठभूमि को समझकर अहिंसा का नया आयाम उद्घाटित किया जा सकता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हिंसा व्याप्त है-भोजन से भाव तक । हिंसा को रोकना संभव नहीं है । जीवन में अनावश्यक हिंसा अधिक चलती है। मनुष्य प्राणी-जगत् के प्रति संवेदनशील और जागरूक नहीं है. इसीलिए उसमें हिंसा का भाव प्रबल है। लड़ाई, युद्ध जैसे बड़े संघर्ष हमें चिंतित करते हैं । पर हिंसा के बीज से हम चिंतित नहीं हैं। छोटी-छोटी हिंसाएं बड़ी हिंसा को जन्म देती हैं, इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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