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________________ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि समाजवादी हो सकता है, यह समझने में मुझे कठिनाई है । और यह भी सच है कि राजनीतिक साम्यवाद की मर्यादा में मानवीय करुणा को वह स्थान नहीं मिल सकता, जो सत्ता-संग्रह को मिलता है । पूंजीवादी समाज अर्थशक्ति से उत्पन्न क्रूरता से पीड़ित है तो साम्यवादी समाज सत्ताशक्ति से उत्पन्न क्रूरता से पीड़ित है। मानव के प्रति करुणा को प्राथमिकता कहीं भी प्राप्त नहीं है। वह केवल अहिंसक समाज में ही हो सकती है। अहिंसक समाज में अर्थ और सत्ता का मूल्य सर्वोपरि नहीं होगा। उसमें सर्वोपरि मूल्य होगा मानवता का। शासनमुक्त या शासनयुक्त? अहिंसक समाज शासनमुक्त होगा या शासनयुक्त ? यह प्रश्न बार-बार पूछा जाता है। मेरे सामने जब यह प्रश्न आता है तब दृष्टि एक शास्त्रीय वर्णन की ओर चली जाती है। उसमें निरूपित है कि इसी विश्व में एक कल्पातीत नाम का लोक है । वहां दिव्य पुरुष रहते हैं । वे ऋद्धि और ऐश्वर्य के समान हैं, आयु और बल की दृष्टि से समान हैं। उनमें न कोई सेवक है और न कोई स्वामी । वे सब ‘अहमिन्द्र' हैं। उनका समाज सोलह आना साम्यवादी और सोलह आना शासनमुक्त है। इस वर्णन को आप कल्पना माने या यथार्थ, यह अपनी इच्छा पर निर्भर है। यदि कल्पना भी हो तो इसका मूल्य कम नहीं है । साम्यनिष्ठ और शासनमक्त समाज की रचना की जा सकती है, इसमें यह संभावना प्रस्फुट हुई साम्यनिष्ठ और शासनमुक्त समाज-रचना का आधारभूत तत्त्व है-मानसिक विकास। यह विकास क्रोध, अभिमान, माया और लोभ के उपशमन से होता है। इसकी ओर पर्याप्त ध्यान दिए बिना साम्यनिष्ठ शासनमुक्त समाज रचना की आशा नहीं की जा सकती। महर्षि मार्क्स ने शासनमक्त समाज की कल्पना की। उनके अनुसार साम्यवाद की चरम परिणति शासनमुक्त समाज है पर साम्यवाद वैसा हो नहीं सकता । साम्यवादी राष्ट्रों में शासन का नियंत्रण अधिक कठोर हुआ है। मेरी समझ में इसका कारण है-मानसिक विकास की अपेक्षा साम्यवादी राष्ट्रों ने समाज के भौतिक आधार में साम्य लाने का प्रयल किया, किन्तु उसके मानसिक विकास की ओर ध्यान नहीं दिया । फलस्वरूप उनकी जनता साम्यवादी हो गई किन्तु साम्यनिष्ठ नहीं हुई। जिसमें साम्य की निष्ठा नहीं होती, वह शासनमुक्त नहीं हो सकता। जिनका क्रोध उपशान्त नहीं है, वे लोग झगड़ालू होने के कारण समाज को शासनमुक्त होने में सहयोग नहीं दे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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