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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि में अर्थ और सत्ता अहिंसा पर आवरण डाल देते हैं । अहिंसक समाज में अर्थ
और सत्ता अहिंसा से प्रभावित होते हैं। भारतीय समाजशास्त्रियों ने पुरुषार्थ चतुष्टयी का प्रतिपादन किया था, जैसे अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष । अर्थ समाज के भौतिक विकास का प्रमुख साधन है । काम उसकी प्रेरणा है । अर्थ और काम का एक युगल है । धर्म और मोक्ष का एक युगल है । प्रथम युगल हमारी भौतिक कक्षा का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा हमारी आध्यात्मिक कक्षा का । दोनों युगलों का अपना-अपना स्थान और महत्व है।
सोमदेव सूरी ने एक प्रश्न उपस्थित किया कि पुरुषार्थ चतुष्टयी में से किस पुरुषार्थ को अधिक महत्त्व देना चाहिए? इस प्रश्न का मूल्य आज भी कम नहीं हुआ है । उन्होंने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया वह आज मूल्यवान है । उन्होंने कहा-इनका संतुलित सेवन करना चाहिए। किसी एक का अतिसेवन करने से वह स्वयं की हानि करता है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाता है । इसलिए यह स्पष्ट है कि अर्थ की अति का तात्पर्य है--काम और धर्म की क्षति । काम की अति का तात्पर्य है---अर्थ और धर्म की क्षति ! धर्म की अति का तात्पर्य है—अर्थ और काम की क्षति । समाज को इन सबकी अपेक्षा है। इसलिए सामाजिक भूमिका में किसी एक को सर्वोच्च आसन नहीं दिया जा सकता । ऐसा अनुभव हो रहा है कि वर्तमान समाज ने अर्थ को अतिरिक्त मूल्य दिया है। महामात्य कौटिल्य का प्रसिद्ध सूत्र है—'अर्थ एव प्रधानमिति कौटिल्यः।' कौटिल्य अर्थ को ही प्रधान मानता है। इस अर्थ की प्रधानता से आज का समाज हिंसा के चक्रव्यूह में फंस गया है।
हिंसक समाज में ये तत्त्व फलते-फूलते हैं—(१) अर्थ और सत्ता का केन्द्रीकरण, (२) स्वार्थ का उन्मुक्त प्रयोग, (३) गलत मूल्यों की स्थापना, (४) श्रम का अवमूल्यन, (५) अनैतिकता का उत्कर्ष ।
अहिंसक समाज में इन तत्त्वों को विकसित होने का अवसर मिलता है—(१) अर्थार्जन के साधनों की शुद्धि, (२) सत्ता का विकेन्द्रीकरण, (३) मूल्योंकी यथार्थता, (४) श्रम का उचित मूल्यांकन, (५) नैतिकता का विकास, (६) कर्तव्य की प्रेरणा, (७) स्वार्थ का विसर्जन या स्वार्थ-संतुलन । व्यक्ति और समाज
व्यक्ति और समाज-ये दो सापेक्ष इकाइयां है। व्यक्ति समाज का घटक और समाज व्यक्ति के हितों का संरक्षक है । व्यक्ति-विहीन समाज अस्तित्व में
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