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________________ सुधरे व्यक्ति समाज व्यक्ति से और उसी आधार पर उनकी चिकित्सा की जाती है । पर उपचार फलप्रद नहीं होता । रोग नहीं मिटता । मनोवैज्ञानिक उपचार होता है और वह रोग शांत हो जाता है। ध्यान की प्रक्रिया भीतरी खोज की प्रक्रिया है । शरीर प्रेक्षा करने वाला साधक जब पैर से सिर तक एक-एक अवयव की प्रेक्षा करता है तब वह भीतर की गहराई तक पहुंच जाता है। वह बाहरी खोज नहीं करता। वह भीतरी खोज करता है । उस समय प्राणशक्ति का ऐसा प्रवाह होता है कि शरीर के अवयवों के अवरोध मिट जाते हैं। असंतुलित प्राणशक्ति संतुलित हो जाती है, विद्युत् का प्रवाह संतुलित हो जाता है । चैतन्य - केन्द्रों के अवरोध मिट जाते हैं । एक आदमी शारीरिक़ श्रम करने वाला है। दूसरा मानसिक श्रम करता है। तीसरा दार्शनिक है जो सृष्टि की समस्याओं को सुलझाने में लगा रहता है। चौथा वैज्ञानिक है जो नए-नए आविष्कारों के लिए सतत गहरे चिन्तन में रहता है चारों प्रकार के आदमी थकान का अनुभव करते हैं, तनावग्रस्त भी होते हैं । हम यह न मानें कि बुरे चिंतन से ही तनाव पैदा होता है, अच्छे चिंतन से भी वह पैदा होता है। श्रमिक में जो थकान और तनाव होता है. वह दार्शनिक पहलू में उलझे हुए दार्शनिक और वैज्ञानिक पहलू में उलझे हुए वैज्ञानिक में भी होता है। वह भी थकान और तनाव से मुक्त नहीं हो सकता । क्योंकि ये सारी शारीरिक क्रियाएं हैं। जो भी व्यक्ति ज्यादा श्रम करेगा, विश्राम नहीं करेगा तो एड्रीनल कार्टेक्स पर उसका प्रभाव होगा । उससे हार्मोन्स का स्राव अधिक होगा। वह रक्त में मिलेगा। उससे थकान पैदा होगी। जैसे ही एड्रीनल कार्टेक्स की सक्रियता बढ़ती है, थाइमस सिकुड़ने लग जाता है। थाइमस ग्लेण्ड छाती के पास होता है । आनन्द - केन्द्र का संबंध इस थाइमस ग्रंथि से हो सकता है । थाइमस का कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण होता है किन्तु एड्रीनल कार्टेक्स की सक्रियता के कारण वह सिकुड़ने लग जाता है। शरीर के एक अवयव की क्रिया का प्रभाव दूसरे अवयव पर पड़ता है और तब संतुलन बिगड़ जाता है। शरीर में पूरा संतुलन है, समन्वय है । एक व्यक्ति के चोट लगती F है है । पर चोट की क्षति को पूरा करने के लिए एड्रीनल की शक्ति उधर लग जाती । अनुकूलन ऊर्जा भी उधर खपने लग जाती है। परिणाम यह होता है कि आंतों में छाले पड़ जाते हैं । पाचन का कोई दोष नहीं, किन्तु जो ऊर्जा आंतों को मिलनी चाहिए थी वह ऊर्जा उस टूट-फूट में, हड्डियों को ठीक करने में लग गई। आंतों को पूरी ऊर्जा मिली नहीं । उसमें छाले पड़ गए। ऊर्जा का संतुलन, प्राणधारा का संतुलन और विद्युत् का संतुलन बना रहे, इस दृष्टि से ध्यान का बहुत बड़ा महत्त्व है । यह संतुलन बना रहता है तो व्यक्ति Jain Education International ७७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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