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________________ मैं कुछ होना चाहता हूं बिगड़ने के कारण भी भीतर मौजूद हैं और सुधरने के हेतु भी भीतर में होता है । आदमी बुरा होता है भीतर के कारणों से और अच्छा भी होता है भीतर के कारणों से। बाहरी कारणों से न बिगड़ता है और न सुधरता है। हमें भीतर प्रवेश कर उन कारणों को खोजना होगा। शरीर में अनेक ग्रन्थियां हैं, वे मनुष्य को बनाने - बिगाड़ने में बहुत काम करती हैं। एक शरीर - शास्त्री जानता है कि व्यक्ति के निर्माण में और ध्वंस में ग्रन्थियों का कितना बड़ा हाथ होता है? वह जानता है कि इनमें नाड़ी संस्थान का क्या दायित्व होता है? जब तक हम इन सब पर ध्यान नहीं देंगे तब तक सुधरने - सुधारने की समस्या का समाधान नहीं होगा । रोम में घटित एक घटना है। दस वर्ष का एक बालक अपराधी बन गया। अपराध करना उसका स्वभाव जैसा बन गया । पचास वर्ष तक उसने अनेक अपराध किए । चालीस बार जेल गया। यातनाएं सहीं । पर वह अपराध को छोड़ नहीं सका। उसके अपराध - वृत्ति के कारणों की खोजें प्रारम्भ हुईं। अनेक वैज्ञानिक संग्लन हुए। उससे पूछताछ प्रारम्भ हुई। एक वैज्ञानिक ने पूछा- क्या तुम्हें कभी चोट आई ? उसने कहा- एक बार कार का एक्सीडेन्ट हो गया था । कनपटी के पास चोट आई थी । वैज्ञानिक ने उसकी कनपटी का एक्सरे लिया। उससे ज्ञात हुआ कि कनपटी के पास एक नाड़ी में कुछ फंसा हुआ है। ऑपरेशन किया। उस नाड़ी में कांच का सूक्ष्म टुकड़ा फंसा हुआ था। वह जब भी अवरोध पैदा करता, उस व्यक्ति में अपराध की भावना उभरती, और वह कोई-न-कोई अपराध कर लेता। उस टुकड़े को निकाल दिया गया। उसकी अपराध - वृत्ति समाप्त हो गई। वह एक सभ्य व्यक्ति की गिनती में आ गया। ७६ हमारे शरीर में कनपटी का भाग महत्त्वपूर्ण है । कनपटी के पास स्मृति केन्द्र भरे पड़े हैं । जो कनपटी को समझ लेता है वह स्मृति का काफी विकास कर लेता है I भीतर की खोज से बहुत सारे अपराध नष्ट हो जाते हैं. 1 आज रोगी को कहा जाता है - तुम मनोवैज्ञानिक जांच कराओ। अपराधी को कहा जाता है - तुम किसी मनोवैज्ञानिक के पास जाकर मूल कारण की खोज कराओ । मनोवैज्ञानिक खोज आध्यात्मिक खोज है, भीतर की खोज है । मनोवैज्ञानिक बाहरी खोज को इतना महत्त्व नहीं देता । वह भीतर की खोज को महत्त्व देता है । मनोवैज्ञानिक खोज पूरी भीतरी खोज की प्रक्रिया है । पाश्चात्य देशों में रोगों की डाक्टरी जांच के साथ मनोवैज्ञानिक जांच भी की जाती है । अनेक बीमारियां शारीरिक नहीं होती. वे मानसिक होती हैं, परन्तु शरीर में अभिव्यक्त होने के कारण उन्हें शारीरिक बीमारियां मान लिया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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