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________________ ५४ मैं कुछ होना चाहता हूं कोई माध्यम ही नहीं बनता। न स्मृति होती, न कल्पना होती और न चिन्तन होता। ज्ञान के तीन पहलू हैं-स्मृति, कल्पना और चिन्तन। ये तीनों वाणी के आश्रित हैं। मन और वाणी को अलग करना समझ में नहीं आता। क्या वास्तव में मन और वाणी दो हैं? जैन आचार्यों ने इस प्रश्न पर बहुत गहराई से विचार किया है। उन्होंने कहा-एक स्थिति में मन और भाषा दो नहीं रहते, एक बन जाते हैं। आज के मनोवैज्ञानिक भी इसी भाषा में सोचते हैं कि मन और भाषा को सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता। मन का काम है-स्मृति करना, कल्पना करना, चिन्तन करना, मनन करना। क्या कोई ऐसी स्मृति है जिसमें भाषा का साथ न हो? क्या कोई ऐसी कल्पना होती है जिसमें भाषा और शब्द न हो? क्या कोई ऐसा चिन्तन होता है जिसमें भाषा या शब्द का उपयोग न हो? भाषा से गुप्त कोई स्मृति नहीं हो सकती। भाषा से गुप्त कोई कल्पना नहीं हो सकती। भाषा से गुप्त कोई चिन्तन नहीं हो सकता। स्मृति, कल्पना और चिन्तन तीनों के लिए शब्द चाहिए। बिना शब्द के वे लगड़े हैं, चल ही नहीं सकते। तो फिर मन और वाणी या भाषा या शब्द को अलग करने की सीमा कहां है? मुझे लगता है कि यह बात हमें सीमा का बोध करायेगा कि भाषा को मूक मन कहा जा सकता है और मन को मुखर भाषा कहा जा सकता है। जब मन मुखर होता है, बोलने लगता है, तब मन का नाम भाषा हो जाता है और भाषा जब मूक बनती है, तब मन का नाम भाषा हो जाता है। कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, अतीन्द्रियद्रष्टा हो, यदि उनके पास भाषा नहीं है तो वह दुनिया के काम का नहीं होता। केवलज्ञानी और अवधिज्ञानी भी भाषा के अभाव में अनुपयोगी बन जाते हैं। केवलज्ञानी भी मूक हो सकता है। वह जानता सब कुछ है पर बता नहीं सकता। वह दुनिया के लिए अनुपयोगी होता है। मुनि के लिए एक विशेषण है-'तिन्नाणं तारयाणं'-मुनि स्वयं तरता है और दूसरों को तारता है। वह स्वयं अपनी समस्याओं का पार पाता है और दूसरों को भी समस्याओं से पार पहुंचाता है। यह सब भाषा के माध्यम से ही संभव हो सकता है। भाषा के बिना ऐसा नहीं हो सकता। भाषा के अभाव में वह स्वयं तैर सकता है, दूसरों को नहीं तैरा सकता। 'तिन्नाणं तारयाणं' वाली बात भाषा के आधार पर ही सफल होती है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग हैं। एक बादशाह था। उसको एक नौकर की जरूरत थी। परीक्षण के लिए अनेक लोगों को बुलाया। जब आदमी रखना था तो परीक्षण जरूरी था। क्योंकि आदमी बहुत काम देने वाला होता है तो आदमी बहुत खतरनाक भी होता है। कोई खतरनाक आदमी न आ जाए इसलिए परीक्षा जरूरी थी। उपस्थित लोगों में से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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