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________________ ३८ मैं कुछ होना चाहता हूं मुर्खता क्यों? यह तो समझदारी है। मैंने कहा-तो फिर तुम कैसे मूर्खता की बात करते हो? आत्मा को देखना चाहते हो, उसका साक्षात्कार करना चाहते हो तो क्या श्वास-दर्शन किये बिना आत्म-दर्शन हो जाएगा? श्वास-दर्शन प्रथम द्वार है। क्या प्रथम द्वार में प्रवेश किए बिना भूमिगृह में चले जाओगे? यह कभी संभव नहीं है। बाहर से छलांग मार कर भीतर नहीं पहुंचा जा सकता। एक-एक दरवाजे को क्रमश: पार करके ही भीतर तक पहुंचा जा सकता है। यह निश्चित नियम है। आत्मा तक पहुंचने के लिए सात दरवाजे, पार करने होंगे। पहले श्वास को देखना है। शरीर को देखना है। शरीर में होने वाले परिवर्तनों को-रसायनों को देखना है। शरीर की विद्युत् के आवेशों को देखना है। उस विद्युत् द्वारा होने वाले मस्तिष्कीय परिवर्तनों को देखना है। प्रत्येक कोशिका को देखना है। उसमें होने वाली प्रक्रिया को देखना है। इस प्रकार स्थूल शरीर की सीमा को पार कर, फिर सूक्ष्म शरीर-तैजस शरीर को देखना है। वहां उभरने वाले सारे प्रकम्पनों को देखना है, पकड़ना है। वहां आने वाले चित्रों को देखना है। वहां से आगे सूक्ष्मतम शरीर-कार्मण शरीर, कर्मशरीर तक पहुंचना है। वहां से सारा तंत्र संचालित होता है। बहुत बड़ा तंत्र है वह । वहां लाखों करोड़ों नहीं, असंख्य कर्मचारी कार्यरत रहते हैं। वे प्रत्येक क्रिया को सही ढंग से संचालित कर रहे हैं। वहां कुछ भी अन्यथा नहीं होता। उस पूरे तंत्र को देखना है। पूरे कर्मशरीर को देखना है। उसकी प्रत्येक क्रिया का साक्षात् करना है। इतना होने पर एक नया मार्ग खुलेगा। उस मार्ग पर बढ़ते ही सब कुछ प्रकाश ही प्रकाश नजर आएगा। यह है चेतना का दर्शन । यह है आत्मा का दर्शन, आत्मा का साक्षात्कार । यह है हीरे की अगूंठी, यह है उस हीरे की अंगूठी को देखने की प्रक्रिया। तुम चाहते हो कि पहला दरवाजा खुले ही नहीं और आत्मा तक पहुंच जाएं, परमात्मा मिल जाए। यह कभी संभव नहीं है। प्राप्ति का क्रम है। उसका अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। यह शरीररूपी मकान बहुत बड़ा है विशाल है। एक-एक कर इसमें सात परकोटे हैं। बिना इनको पार किये भीतर तक नहीं पहुंचा जा सकता । भीतर से बहुत बड़ी व्यवस्था है। उसे पूर्णरूपेण समझे बिना भीतर प्रवेश नहीं हो सकता। छलांग की बात मत करो। विकासवाद ने छलांग की बात कही। कुछेक लोग छलांग की बात करते हैं, उसमें विश्वास करते हैं। परन्तु अध्यात्म के मार्ग में, साधना के पथ में छलांग की बात सार्थक नहीं है। वहां क्रम से ही चलना पड़ता है। धीरे-धीरे एक-एक आयाम को पार कर, मंजिल प्राप्त करनी होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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