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________________ इन्द्रिय अनुशासन एक युवक मेरे सामने खड़ा था। मैंने पूछा-तुम कौन हो? उत्तर मिला-मैं अध्यात्म का जिज्ञासु हूं। मैंने कहा-फिर ललाट पर शिकन कैसे? उसने कहा-उलझनें उभर रही हैं। मैंने पूछा--अध्यात्म उलझनों को मिटाने का उपाय है। अध्यात्म का जिज्ञासु उलझनों में उलझा रहे, उसके चेहरे पर विषाद की रेखाएं खचित रहें, इसका क्या कारण है? कुछ समझ में नहीं आता। उसने कहा-बात सही है। मैंने इस क्षेत्र में प्रवेश किया था उलझनों को मिटाने के लिए, किन्तु मैं तो और अधिक उलझ गया। मैंने पूछा-यह कैसे हुआ? उसने कहा-मैं विज्ञान का विद्यार्थी हूं। मैं अध्यात्म के क्षेत्र में इस आशा से उतरा था कि अध्यात्म से जीवन सरस बनेगा, रसमय बनेगा। किन्तु जैसे-जैसे अध्यात्म के ग्रन्थ पढ़े, मुझे नीरस तथ्य ही मिले। उनमें रसहीन जीवन की प्रक्रियाएं ही मिलीं। मैंने उत्तराध्ययन पढ़ा। उसमें मिला ‘रसापगामं न निसेवियव्वा'-रसों का अधिक सेवन मत करो। महाभारत पढ़ा। उसका स्वर है-योगी का बल है नीरस भोजन, अरस भोजन। महात्मा गांधी को पढ़ा। वे बार-बार दोहराते हैं अस्वाद, अस्वाद। मैंने सोचा-मनोनुशासनम् नया ग्रन्थ है, यह आज के युग का ग्रन्थ है। इसमें सरस भोजन का आशावादी स्वर मिलेगा, रसमय जीवन जीने के उपाय मिलेंगे। उसे मनोयोगपूर्वक पढ़ा। उसमें भी यही स्वर मिला कि इन्द्रियों के रस को कम करो, इन्द्रिय-शुद्धि करो। आहार की शुद्धि के पश्चात् इंद्रिय शुद्धि करो। इंन्द्रिय-जय की चर्चा करते-करते अध्यात्म के सारे ग्रंथ रसहीन बन गए हैं। इस रसहीनता को देखकर अध्यात्म से ऊब गया हूं। मैं उलझन मिटाने के लिए आया था, पर नई उलझनों में फंस गया। मुझे वह जीवन चाहिए जिसमें सरसता टपके । वह जीवन चाहिए जिसमें रस हो, आनन्द हो, स्वाद हो। आज के युवक के लिए अस्वाद की बात अर्थहीन है। इस वैज्ञानिक प्रगति के युग में त्यागने या छोड़ने की बात मान्य नहीं हो सकती। मत देखो। मत सुनो। मत खाओ। मत पीओ। मत बोलो। मत छुओ। सुगन्ध भी मत लो। मत करो, मत करो-इस निषेध ने जीवन का सारा रस चूस लिया, उसे रसहीन बना डाला। सारा जीवन ईख के छिलके की भांति रसहीन हो गया। अध्यात्म के आचार्यों ने जो कहा, जो बताया, उससे मुझे बड़ी निराशा हुई है। फिर आप पूछते हैं-चेहरे पर शिकन क्यों? उलझन की रेखा क्यों? शिकन क्यों नहीं होगी? उलझने क्यों नहीं उभरेंगी? अध्यात्म में प्रवेश कर मझे बहत कष्ट हआ। मेरी सारी आशाएं धमिल हो गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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