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________________ ११८ मैं कुछ होना चाहता हूं करूंगा, पुरुषार्थ करूंगा, उसे भरूंगा। खड्डे भी भरूंगा, खाली को भरूंगा और पूरा करूंगा। इस दिशा में प्रयास चलता है। यह हमारी सृजनात्मक चेतना होती है। यह हमारी रचनात्मक दृष्टिकोण होता है। इस सृजनात्मक चेतना के द्वारा ही मनुष्य-जाति का विकास हुआ है, समाज का रथ आगे बढ़ा है। चाहे साहित्यिक क्षेत्र में, साधना या संस्कृति के क्षेत्र में और चाहे किसी भी क्षेत्र में-जो-जो सृजनात्मक चेतना प्रस्फुटित हुई है वह इसी तीसरी चेतना के माध्यम से हुई है। ध्यान का अभ्यास इस चेतना के जागरण का अभ्यास है। चेतना को चेतना के द्वारा जगाया जा सकता है। चेतना के अनुभव द्वारा चेतना के जागरण की यही प्रक्रिया रही है। धातवाद की एक पूरी प्रक्रिया है। प्राचीन भारत में भी आजकल जो विशेष अन्तरिक्षयान बनाए जाते हैं उनमें धातु-शोधन की बात सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। धातु का शोधन शुद्ध धातु के द्वारा ही किया जा सकता है और कोई उपाय नहीं । एक शुद्ध धातु का डंडा बना दिया, उसमें से सारे विजातीय कण निकाल दिए। उस डंडे को घुमाते चलो और जो अशुद्ध धातु है वह अपने आप शुद्ध होती जाएगी, उसके विजातीय कण निकलते चले जाएंगे। जब तक विजातीय तत्त्व हैं, धातु शुद्ध नहीं होती। शुद्ध धातु के द्वारा धातु के शोधन की प्रक्रिया की जाए। हमारी चेतना की भी यही प्रक्रिया है। अशुद्ध चेतना के अनुभव के द्वारा कभी भी चेतना का शोधन नहीं हो सकता। जब तक चेतना में राग-द्वेष की तरंगें भरी पड़ी हैं. जब तक राग-द्वेष की ऊर्मियां जाग रही हैं तब तक चेतना का जागरण नहीं हो सकता और चेतना शुद्ध नहीं बन सकती। ध्यान एक वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा विजातीय तत्त्वों का शोधन होता है। राग-द्वेष, कषाय, वासना-ये सारे विजातीय कण चेतना में मिले हुए हैं। जैसे ही ध्यान का, राग-द्वेष-मुक्त प्रेक्षा का प्रयोग होता है. चेतना से विजातीय तत्त्व निकलने लग जाते हैं। प्रेक्षा का मतलब है-देखें, अनुभव करें। न राग, न द्वेष, न प्रियता का संवेदन, न अप्रियता का संवेदन। राग-द्वेष-मुक्त चेतना के द्वारा अपनी चेतना का अनुभव करें, जिससे चेतना का शोधन होगा और ठीक यह धातुवाद की प्रक्रिया होगी। यह जीवन की प्रगति का, जीवन के विज्ञान का एक महान् अनुष्ठान है। यह वह अनुष्ठान है जिसके द्वारा व्यवहार का परिष्कार होता है, आचार का परिष्कार होता है और स्वभाव का परिष्कार होता है। इन तीनों का परिष्कार होने का अर्थ है-व्यक्ति का परिष्कार, समाज का परिष्कार । यह एक स्वप्न है और इतना मीठा स्वप्न इतना सुनहला स्वप्न कि इस स्वप्न को साकार किया जा सकता है। दुनिया में कोई सपना अधूरा नहीं होता यदि हमारा पुरुषार्थ बराबर चलता रहे। कोई भी कल्पना और सपना साकार हो सकता है, यदि पुरुषार्थ बराबर चलता रहे। अपेक्षा है सपना देखने की और अपेक्षा है समुचित पुरुषार्थ की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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