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________________ मैं कुछ होना चाहता हूं 'मैं मनुष्य हूं'-इस विषय पर संक्षिप्त मीमांसा हमने की। मैं कुछ होना चाहता हूं-यह हमारे सामने प्रश्न है। मनुष्य हूं तो फिर पशु होना तो नहीं चाहता। मनुष्य हूं तो वनस्पति जगत् में जाना तो नहीं चाहता। उत्क्रमण के बाद अपक्रमण में जाना कोई पसन्द नहीं करता। जब उत्क्रान्ति हो जाती है तो अपक्रान्ति किसे पसन्द होगी? किसी को भी पसंद नहीं होगी। हर व्यक्ति उत्तरोत्तर विकास चाहता है। मनुष्य देवता बनना चाहता है या मुक्त होना चाहता है। पर देवता होना कोई बड़ी बात नहीं है। देवता स्वयं चाहते हैं कि मनुष्य बनें। हमारी भारतीय साहित्य की धारा में अनेक बार यह गाया गया कि देवता स्वयं इच्छा करते हैं कि वे मनुष्य बनें और मनुष्य जन्म में कुछ विशिष्ट उपलब्धियां करें, जो केवल मनुष्य जन्म में ही की जा सकती हैं, दूसरे जन्म में नहीं की जा सकती। आध्यात्मिक चेतना का आरोहण विकास केवल मनुष्य जीवन में ही संभव है, दूसरे जीवन में संभव नहीं है। समद्धि, वैभव अधिक हो सकता है, भोग-विलास अधिक हो सकता है, कछ चामत्कारिक शक्तियां अधिक हो सकती हैं, पर निरन्तर चेतना को गतिशीलता, अहिंसा का विकास, अस्तित्व की अनुभूति और प्रत्येक अस्तित्व के प्रति सहानुभूति-ये केवल मनुष्य जन्म में ही सम्भव है, अन्यत्र संभव नहीं है। इसीलिए प्रार्थना के स्वर में कहा जाता है कि मनुष्य बनें और आत्मिक उत्कर्ष को उपलब्ध हों। 'तुम क्या होना चाहते हो?' 'मनुष्य हूं और सही अर्थ में मनुष्य बनना चाहता हूं।' मनुष्य होना और सही अर्थ में मनुष्य होना बिलकुल दो बातें हैं। आकार-प्रकार जाति से मनुष्य हूं। किन्तु मनुष्यता का विकास नहीं होता तब तक मनुष्य होने की बात सदा सामने रहती है। ___हमारी लाक्षणिकता है कि लक्ष्य के साथ जब तक पूरा लक्षण घटित नहीं होता तब तक संज्ञा का व्यपदेश नहीं होता, नामकरण नहीं होता। गोत्र के द्वारा 'गोत' होती है। मनुष्यत्व के द्वारा मनुष्य हो सकता है। मनुष्यत्व के अभाव में, केवल आकार-प्रकार से मनुष्य नहीं हो सकता। दो प्रकार के धर्म हैं-विशेष धर्म और सामान्य धर्म । सामान्य धर्म लक्षण नहीं बनता। विशेषधर्म ही लक्षण बनता है। मनुष्य में विशेष धर्म मनुष्यत्व है, इसलिए वह मनुष्य है। यदि मनुष्यत्व नहीं है तो फिर मनुष्य होना भी संदिग्ध बन जाएगा। मनुष्य सही अर्थ में मनुष्य होना चाहता है। वह व्यवहार में परिष्कार चाहता है, आचार में परिष्कार चाहता है, संस्कार में परिष्कार चाहता है, स्वभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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