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________________ - - ass समाधि का मूल सोन. चक्षुष्मान् ! अकेला वह होता है, जो परम को देखता है। प्रत्येक मनुष्य सामाजिक है, वह सामाजिक जीवन जीता है। पौद्गलिक स्तर पर कोई अकेला हो नहीं सकता, जी नहीं सकता। अलेला होने की भूमिका केवल चेतना के स्तर पर ही निर्मित होती है। आत्मा अकेली है। उसका किसी दूसरे के साथ सम्बन्ध नहीं है। वह पुद्गल-दर्शन के क्षण में दूसरे से घुल-मिल जाती है और चैतन्य-दर्शन के क्षण में अकेली हो जाती है। इसी सत्य के आधार पर महावीर ने कहा—जो परमदर्शी है, वह विविक्तजीवी होता है । वह समुदाय में रहता हुआ भी चेतना के स्तर पर अकेला जीता है। क्रोध आदि संवेग उफनते रहते हैं। नाला उफन जाता है, जब पीछे से पानी का पूर आता है । संस्कार का पूर पानी के पूर से कहीं अधिक वेगवान् और शक्तिशाली होता है। जो चेतना के स्तर पर अकेला रहता है, वही उपशान्त रह सकता है। उपशान्त व्यक्ति की प्रवृत्ति ही समीचीन हो सकती है । सहिष्णुता की क्षमता का विकास उपशान्त व्यक्ति में ही सम्भव बनता है । संयम का विकास भी उपशान्त पुरुष में सम्भव है। जिसकी चेतना में उपशम का निर्झर प्रवाहित है, वह मौत से घबराता नहीं है। उसमें न जीने की चाह होती है और न मरने की । वह जीता है समाधि के साथ और मृत्यु के क्षण में भी उसकी समाधि बनी रहती है। समाधि का मूल स्रोत है—परम-दर्शन। इसीलिए महावीर ने कहा लोयंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिए सहिते सया जए कालकंखी परिव्वए। जो लोक में परम को देखता है, वह विविक्त जीवन जीता है । वह उपशान्त, सम्यक् प्रवृत्त, सहिष्णु और सदा अप्रमत्त होकर जीवन के अंतिम क्षण तक परिव्रजन करता है। 1 फरवरी, 1994 सुजानगढ़ अपथ का पथ 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003078
Book TitleApath ka Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size3 MB
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