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________________ पश्मदुर्शी बनी mma चक्षुष्मान् ! विकास की यात्रा अपरम से परम की ओर । मनुष्य अपरम है । आत्मा परम है। प्राणी जगत् में मनुष्य होना बहुत बड़ी उपलब्धि है पर वह परम नहीं है। आत्मा होना परम है। परमदर्शी वह होता है, जो शरीर में आत्मा को खोजता है। जिसकी चेतना शरीर तक सीमित है, उसका प्रस्थान मूर्छा या आसक्ति की दिशा में होता है। आत्मदर्शी का प्रस्थान एकत्व की ओर होता है । इसी आध्यात्मिक अनुभूति का उदान है : एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ परम स्वभाव है। आगम की भाषा में यह पारिणामिक भाव है। जो पुरुष अपने पारिणामिक भाव को देखता है, वह बंधन से मुक्त हो जाता है। आत्मा सतत परिणमनशील है। वह परिणमन के वीथि-चक्र के मध्य रहकर भी समुद्र से पराङ्मुख नहीं होती। इस सत्य की अनुभूति परम-दर्शन है। इसीलिए महावीर ने कहा-परमदर्शी बनो। लोयसि परमदंसी। 1 जनवरी, 1994 जैन विश्व भारती .... - - - 18 अपथ का पथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003078
Book TitleApath ka Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size3 MB
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