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अमृल्ब का सूत्र
चक्षुष्मान् !
अमृत होना भारतीय मानस की चिरन्तन आकांक्षा है। मनुष्य मरणधर्मा है। वह जन्म और मृत्यु के वलय में अवस्थित है। जीवन इष्ट है और मरण अनिष्ट । अनिष्ट इष्ट से जुड़ा हुआ है।
अनिष्ट को विलग कर इष्ट को पाने का कोई उपाय नहीं है। इस विवशता ने एक नया मार्ग खोजा, वह है अमृत, जहां जन्म और मरण-दोनों नहीं हैं।
अजन्मा हुए बिना कोई अमर होता तो आदमी जन्म को पसंद करता किन्तु अजन्मा और अमर—दोनों में व्याप्ति संबंध है, इसलिए उसने अजन्मा पद को भी स्वीकार किया। इस स्वीकृति ने जन्म और मरण के पंख काट डाले।
जन्म के दो पंख हैं—राग और द्वेष, प्रियता और अप्रियता का संवेदन।
अमृत्व की आस्था ने इनकी उड़ान को बंद कर दिया । मनुष्य वीतराग बन गया।
महावीर से पूछा-क्या कोई मनुष्य अमृत हो सकता है ? 'हां, हो सकता है।' भंते ! कौन हो सकता है ?'
महावीर ने कहा-एस मरणा पमुच्चति यह मनुष्य मरण से मुक्त हो सकता है क्योंकि यह वीतराग है। 1 नवम्बर, 1993 राजलदेसर
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(S अपथ का पथ
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