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________________ प्रश्न है अनासक्ति का ७९ इससे साधना की बात मुझे क्या मिलेगी! पर आखिर करे क्या, वह राजा के साथ गया। महल के पीछे नदी बह रही थी। नदी में दोनों उतरे । देखते हैं कि महल में आग लग गई है। देखा, राजा तो खड़ा है। उसने कहा'महाराज ! आपके महल में तो आग लग गई ।' राजा ने कहा-'कोई बात नहीं।' राजा ने ध्यान ही नहीं दिया तो वह वहां से दौड़ा, क्योंकि महल में वह अपना थैला भूल आया था। उसने सोचा, मेरा थैला कहीं जल न जाए। उसने अपना थैला लिया, फिर नदी पर आकर बोला---'महाराज' ! आग तो आगे बढ़ रही है ।' राजा ने फिर भी ध्यान नहीं दिया। आग अपने आप बुझ गई। उसने कहा-'महाराज ! आपने आग पर ध्यान ही नहीं दिया ?' राजा ने कहा ---- 'मैं तो ध्यान दे चुका और संवेदन के सूत्र को काट चुका । महल महल है और मैं मैं हूं। फिर जले तो क्या और न जले तो क्या !' उस व्यक्ति ने कान पकड़ा। उसे साधना का सूत्र समझ में आ गया कि थैले के लिए तो मैं दौड़ा-दौड़ा गया और राजा ने महल की भी कोई चिंता नहीं की। उसे साधना का गुर समझ में आ गया। जब तक संवेदन का सूत्र नहीं टूटता, तब तक आदमी पदार्थ से जुड़ा रहेगा, चिपका रहेगा। प्रेक्षाध्यान का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-संवेदना के सूत्र को काटना । उसे काटने के लिए अपने प्रकम्पनों को पकड़ना होगा भीतर में जाकर । जो भीतर से प्रकम्पन आ रहे हैं सूक्ष्मतर शरीर से, उन प्रकम्पनों को पकड़ना और उनका विच्छेद करना, यह साधना का, आदतों को बदलने का और स्वभाव को बदलने का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। यदि आप क्रोध की आदत बदलना चाहते हैं तो उसे पकड़ें, जो तरंग आकर आपके दिमाग को गरम बनाती हैं, आपके क्रोध के संवेदन-तन्तु को उत्तेजित करती हैं। उसे पकड़ पाएंगे तो यह निर्वेद की अवस्था होगी और ऐसा होने पर ही विराग की अवस्था का विकास होगा और विराग की अवस्था होने पर ही आदत के परिवर्तन का मार्ग मिल सकेगा। दो मार्ग हैं हमारे सामने । एक है संसार का मार्ग और दूसरा है सिद्धि का मार्ग । संसार का मार्ग है, आदत का मार्ग है। मोक्ष का मार्ग है आदत को बदलने की शक्ति का मार्ग, आदत को बदलने की क्षमता का मार्ग । संसार की सामान्य भाषा में हम उलझे हुए हैं। जन्म-मरण का चक्र यह संसार है और इससे छुटकारा पाना मोक्ष है । संसार से छुटकारा पाना तो दूर है, अभी आदतों से तो छुटकारा पाया ही नहीं है। कहां से कहां तक पहुंच जाते हैं ! जो सामने है वह तो दिखाई ही नहीं दे रहा है और हम दूर तक पहुंच जाते हैं। हम इस वास्तविक परिभाषा पर ध्यान दें कि संसार है आदतों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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