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________________ मैत्री : जीवन के साथ आपका पैर आगे बढ़ने को चल रहा है तो मन भी उसके साथ चले। यह शरीर और मन का योग जहां होता है वह क्रिया सम्यक क्रिया होती है। शरीर तो चलता है पूर्व में और मन चलता है पश्चिम में। पैर तो जाता है उत्तर में और मन जाता है दक्षिण में । खींचातानी शुरू हो जाएगी। मन कहता है इधर चलं और पैर कहता है कि उधर चलू। आपस में ही लड़ पड़ेंगे। क्या भला होगा ? कम से कम दोनों में मैत्री स्थापित करें कि जिधर मन चले उधर पर चले और जिधर पर चले उधर ही मन चले । दोनों साथ-साथ चलें। सातवीं बात है-प्रतिक्रिया-विरति । वर्तमान की जीवन-प्रणाली में प्रतिक्रिया का जीवन बहुत जीया जा रहा है। भयंकर प्रतिक्रिया । हर बात की प्रतिक्रिया । क्रिया बहुत कम होती है और प्रतिक्रिया बहुत अधिक होती है। प्रतिक्रिया के कारण आदमी बहुत अस्त-व्यस्त हो जाता है। यह जीवन में संभव तो नहीं कि प्रतिक्रिया न हो । जब तक आवेश है, आवेश की जीवन-प्रणाली है, प्रतिक्रिया संभव है। प्रतिक्रिया-विरति का मतलब है आवेशों का अनुशासन, आवेशों का संतुलन । आवेशों को मिटाया तो नहीं जा सकता पर आवेशों पर नियन्त्रण पाया जा सकता है । वे आप से बाहर न हों, अपने कंट्रोल से बाहर न हों, यह संभव है । प्रतिक्रिया-विरति यानी आवेशों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लेना। यह एक जीवन प्रणाली है जो प्रेक्षा-ध्यान के द्वारा उपलब्ध हो सकती है, साधना और अभ्यास के द्वारा उपलब्ध हो सकती है । जो जीवन का ढर्रा चल रहा है, क्या उसे बदलना जरूरी नहीं है ? आदमी बहुत बदला है इस वैज्ञानिक युग में । तो क्या जीवन-प्रणाली को बदलना भी जरूरी नहीं है ? बहुत आवश्यक लगता है । आदमी बहुत शांति और समाधान के साथ अपना जीवन जी सकता है । जो जीवन जीया जा रहा है, उसकी समस्याएं और जीवन को बदलना है, उसके सूत्र, दोनों के परिणाम-इन सबकी एक संक्षिप्त-सी चर्चा अभी आपने सुनी । जो लोग प्रेक्षाध्यान के शिविर में हैं वे इस पर गंभीरता से विचार करें। शिविर में आने का मतलब है कि जब यहां से जाएं तो जीवन-प्रणाली को बदलने का सूत्र लेकर ही बाहर जाएं । शिविर में आये और जीवन वसा का वैसा ही चला जैसा पहले था, तो शिविर में आना भी ढर्रा बन सकता है, सार्थकता नहीं हो सकती। शिविर में आने की सार्थकता है कि आएं तब तो पुरानी प्रणाली के साथ और जाएं तब नई प्रणाली के साथ । और पुरानी प्रणाली को वोसिरामि-वोसिरामि कह दें । बस, पुरानी को छोड़कर जा रहा हूं और नई को लेकर जा रहा हूं। पुराने कपड़े को ओढ़कर आएं और नया वेश, नया परिधान ओढ़कर जाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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