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________________ मैत्री : जीवन के साथ नींद भी अनियमित । दिमाग में हमेशा यह अनुभूति बनी रहती है कि मैं बहुत ज्यादा व्यस्त हूं। व्यस्त होना उतना बुरा नहीं है जितना कि व्यस्तता की अनुभूति करते रहना है । किसी भी आदमी से पूछो, वह कहेगा कि इतना व्यस्त हूं कि समय ही नहीं मिलता। उसके दिमाग में हमेशा यह अनुभूति बनी रहती कि मैं ज्यादा व्यस्त हूं। कभी पूछा जाए कि भई ! कभी अपने लिए आत्म-चिन्तन करते हो ? आत्म-निरीक्षण करते हो ? आत्म-विश्लेषण करते हो ? अपने आपको देखते हो ? तो कहेगा कि मुझे तो समय ही नहीं है, कब देखू ? प्रातः उठते-उठते आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त होकर आफिस जाना पड़ता है, दुकान में जाना पड़ता है। दिनभर के कार्य के बाद थकेमांदे आते हैं, फिर लेटना सूझता है और सूझता नहीं है। इतनी व्यस्तता कि जैसे हर आदमी को हिन्दुस्तान का शासन चलाना है। शासन चलाने वाले भी इतने व्यस्त हैं या नहीं हैं। हर आदमी अपने आपको इतना ज्यादा व्यस्त अनुभव करता है । अपने लिए और अपनी मानसिक शान्ति के लिए, अपने आत्म-निरीक्षण के लिए १०-१२ मिनट का समय निकालना महाभारत जैसा लग रहा है और हिमालय की कोई चोटी पर चढ़ने जैसा लग रहा है । इतनी व्यस्तता ! तीसरी समस्या है -मानसिक अस्त-व्यस्तता । यह उससे भी भयंकर समस्या है । आदमी मानसिक दृष्टि से इतना अस्त-व्यस्त है कि उसकी कोई सीमा नहीं है। उसका पहला लक्षण है-जल्दबाजी ! धृति नहीं है। प्रतीक्षा करना नहीं जानता। इतनी जल्दबाजी कि काम अभी होना चाहिए। मिनट की भी देरी नहीं होनी चाहिए। चाहे तो डाक्टर के पास जाए और चाहे किसी साधु के पास और चाहे कहीं और जाए, किसी ऑफीसर के पास जाए, कहीं भी जाए, वह कहेगा जो लेना हो ले लो, पर मेरा काम हो जाना चाहिए । डाक्टर के पास जाए तो कहेगा कि ऐसी दवा दो कि अभी स्वस्थ हो जाऊं, देरी नहीं होनी चाहिए । और अगर १० मिनट की भी देरी हो जाती है तो फिर डाक्टर बदलने की बात आ जाती है। एक बीमार डाक्टर के पास जाकर बोला-'डाक्टर साहब ! सिर में बड़ा दर्द है।' डाक्टर ने दवा दे दी। वह गया। आधा घण्टा के बाद फिर आ गया। डाक्टर ने देखा उसका चेहरा और समझ गया। वह बोला-'मुझे लगता है कि तुम्हारा सिर दर्द ठीक नहीं हुआ है । लो अभी दवा बदल देता हूं।' उसने कहा-'डाक्टर साहब ! आप क्षमा करें, मैंने अपना डाक्टर बदल लिया है।' प्रतिक्षा की बात ही नहीं जानता आदमी । जीवन में जहां इतनी जल्दबाजी होती है, वहां धृति की कमी का एक कारण है मानसिक अस्तव्यस्तता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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