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जागरूकता : चक्षुष्मान् बनने की प्रक्रिया
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जिसमें सत्य के प्रति निष्ठा होती है । सत्यनिष्ठा समाज को बदलने का पहला सूत्र है । मैं समाज के स्थान पर घटक मानता हूं व्यक्ति को । एक व्यक्ति के बदलने का तात्पर्य है समाज का बदलना ।
दूसरा सूत्र है - शांतिपूर्ण जीवन । जब तक स्वयं के जीवन में शांति नहीं होती, तब तक समाज को बदलने की बात प्राप्त ही नहीं होती ।
तीसरा सूत्र है - करुणा । जिस व्यक्ति में करुणा का स्रोत सूख गया, वह बदलाव की बात नहीं कर सकता । मन में बहुत ग्लानि होती है जब में देखता हूं कि जो अपने आपको धार्मिक मानते हैं, जैन और वैष्णव मानते हैं,
कितने क्रूर हैं। उनकी क्रूरता को देखकर मन उद्वेलित हो उठता है । ईसाइयों में भी कितनी क्रूरता है ! सेवा की बात सार, पाखंड है । एक ओर सेवा, दूसरी ओर क्रूरता । वे लाखों आदमियों को एक साथ मौत की घाट उतार देने में कोई संकोच का अनुभव नहीं करते । मानो क्रूरता मूर्तिमान् होकर आ गई हो ।
क्रूरता के बिना मिलावट नहीं हो सकती । मिलावट करने वाले धार्मिक हैं या नास्तिक ? गहराई में उतरकर चितन करें कि उनमें कितनी क्रूरता है । वे मिलावट कर कितना अन्याय करते हैं। एक ओर पूजा-पाठ भी चलता है और दूसरी ओर यह क्रूरता भी चलती है । लगता है कि हमारा धर्म और भगवान् ही ऐसा बन गया कि हम सौ बुराइयां करें, फिर भी वे हमें पनाह देते रहते हैं । हमने धर्म को इन ढकोसलों को ढकने का साधन मान लिया । समाचार पत्रों में जब मैं पढ़ता हूं कि दहेज के कारण अमुक युवती की हत्या कर दी गई, जला दिया गया, तब सोचता हूं कि जिसे हम चिन्तनशील और मननशील मनुष्य मानते हैं, क्या यह उन्हीं मानवों का समाज है । मानवों का समाज कहने में लज्जा का अनुभव होता है । यह तो दानवों और पशुओं का समाज है पशु भी इतना क्रूर व्यवहार नहीं करते । वे भी व्यर्थ की हिंसा नहीं करते । सिंह भी बिना भूख के या बिना प्रयोजन हिंसा नहीं करता । पर मनुष्य इसका अपवाद है । थोड़े से लोभ के कारण
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परम दयालु और कृपालु लोग बिना छाना पानी नहीं पीते,
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क्या यह मनुष्यता है ? किसके समक्ष करें ? आज
वह अपने जैसे प्राणी की हत्या कर देता है । जो चींटी के मर जाने पर कंपित हो उठते हैं, वे मनुष्य की हत्या करते समय कंपित नहीं होते ऐसी स्थिति में हम धर्म-कर्म की बात क्यों करें ? हम बात कर रहे हैं जागरण की, पर आदमी तो गहरी मूर्च्छा में जा रहा है, गहरी नींद में जा रहा है। और आश्चर्य तब अधिक होता है जब सास बहू को जिन्दा जला डालती है । स्त्रीजाति स्वयं स्त्रीजाति का अपमान करती है, प्रहार करती है तब लगता है मूर्च्छा कितनी गहरी है। उसका पार नहीं पाया जा सकता । लगता है, पूरी मानवजाति क्रूरता की ओर बढ़ रही है ।
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