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जागरूकता : संतुलन की प्रक्रिया
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सब अकल्याण के निमित्त बनते हैं, अभद्र के निमित्त बनते हैं। चीज में कोई अन्तर नहीं है । 'जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा।' द्रष्टा के लिए आस्रव भी संवर बन जाता है और अद्रष्टा के लिए संवर भी आस्रव बन जाता है। एक द्रष्टा साधक है। उसके पास विपुल शिष्य-परिवार है। वह साधक अहंकार का निमित्त नहीं बनता। वह साधक सोचता है, मैंने इतने शिष्यों को दीक्षित किया है तो मेरा पूर्ण दायित्व है कि मैं इनके साथ न्याय करूं, इनके कल्याण में हेतुभूत बनूं, इनके विकास का निमित्त बनूं । साधक अधिक जागरूक बनता है। जो द्रष्टा नहीं होता और विपुल शिष्य परिवार का स्वामी हो जाता है वह अपने दायित्व के प्रति कभी जागरूक नहीं होता, शिष्यों के कल्याण का हेतुभूत नहीं बनता।
एक साधक जिसने देखना सीखा है, जो द्रष्टा बनने की ओर अग्रसर है, वह सोचेगा, मैं लोगों से पूजा और श्लाघा पा रहा हूं, श्रद्धा पा रहा हूं। मुझे निरन्तर सतर्क रहना है। पूजा को पचाना बड़ा कठिन है। श्रद्धा को पचाना कठिन होता है। उसे पचाने के लिए गहरी आंच चाहिए। यह सोचकर वह साधक गहरी साधना में चला जाता है। यह है द्रष्टा का मार्ग । जिसने देखना नहीं सीखा, वह सोचता है, पूजा और श्रद्धा तो मिल ही रही है, फिर क्यों कठोर जोवन जीया जाए ? क्यों कष्ट सहा जाय ? वह अंधकार से भर जाता है, मार्गच्युत हो जाता है।
स्थानांग सूत्र का यह कथन बहुत मार्मिक और अर्थप्रद है कि आत्मवान् के लिए श्लाघा, पूजा और प्रतिष्ठा साधना में हेतुभूत बनते हैं, सहयोगी बनते हैं और अनात्मवान् के लिए ये सब साधना में बाधक बनते हैं।
इससे फलित यह निकलता है कि पदार्थ पदार्थ है। पदार्थ का होना, परिवार और समुदाय का होना अपने आप में न अच्छा है और न बुरा है। वह तो पदार्थ मात्र है। द्रष्टा के लिए ये साधक बनते हैं, और अद्रष्टा के लिए बाधक । साधकता का और बाधकता का आधार है देखने की क्षमता।
जिसने देखना सीख लिया है वह आदि-बिन्दु को भी देखेगा और अन्तिम बिन्दु को भी देखेगा। जिसने देखना नहीं सीखा, वह आदि-बिन्दु को देखेगा, अन्तिम बिन्दु को भला देगा।
एक सेठ ने बड़ा मकान बनाया । उसमें अलग-अलग व्यवस्थाएं रखीं। सेठ ने जी खोलकर पैसा लगाया। मकान बहुत सुन्दर और भव्य बना । भवन को देखकर सेठ का मन अत्यन्त प्रमुदित हुआ। इस प्रमोदभाव ने उसमें अहंकार भर दिया। वह सबके समक्ष अपने भवन की अति प्रशंसा करने लगा। सुनने और देखने वाले सभी भवन के निर्माण पर विस्मित थे । एक दिन एक सन्यासी आया। सेठ आदरपूर्वक उसे भवन में ले गया। घूम-घूमाकर सारा भवन सन्यासी को दिखाया और पूछा-महाराज ! यह छोटा-सा
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