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________________ जागरूकता : यथार्थ का स्वीकार वे रसलोलुप होते हैं। जिसमें जीभ की मूर्छा है, वह जागरूक नहीं हो सकता। रस्लोलुपता को कम करने के लिए उसे भोजन के विभिन्न प्रयोगों से गुजारा जाता है । कभी उसे सरस भोजन और कभी विरस भोजन, कभी गर्म और कभी ठंडा, कभी अधिक और कभी न्यून- इस प्रकार विभिन्न प्रयोगों के द्वारा उसकी रसना को नियंत्रित किया जाता है और धीरे-धीरे वह जीभ पर विजय पा लेता है। इस प्रकार किसी में सुनने की आसक्ति, किसी में सुंघने की आसक्ति और किसी में स्पर्श की आसक्ति होती है। सबके लिये अलग-अलग साधना-सूत्र हैं। किसी में एक बात की विशेषता होती है तो दूसरी बात की कमजोरी । किसी में एक प्रकार की कमजोरी होती है तो दूसरे प्रकार की विशेषता । जब मूर्छा के चक्र को तोड़कर जागरूकता की दिशा में जाना होता है तब अपनी कमजोरी को स्पष्ट समझना होता है और उससे मुक्त होने का दृढ़ निश्चय करना होता है । दृढ़ निश्चय होने के पश्चात् वह कभी विचलित नहीं होता। राजा बहुत दानी था । वह काव्य का रसिक था। कोई भी पंडित आता, काव्यपाठ करता, राजा उसे पुष्कल पुरस्कार देता। मंत्री ने सोचा, यदि यह क्रम रहा तो खजाना खाली हो जाएगा। उसने उपाय सोचा । राजसभा के प्रवेश-द्वार पर एक वाक्य लिख दिया--"आपदथं धनं रक्षेत"आपदाओं से बचने के लिये धन की रक्षा करनी चाहिए। राजसभा में प्रवेश करते समय राजा की दृष्टि उस वाक्य पर पड़ी। राजा ने वाक्य की पृष्ठभूमि समझ ली। राजा ने उस पंक्ति के नीचे दूसरी पंक्ति लिख दी-"महतामापदः कुतः"- महान् व्यक्तियों को आपदाएं छू नहीं सकतीं। मंत्री ने देखा, सोचा बात बनी नहीं। उसने तीसरी पंक्ति लिखी-'कदाचित् कुपितो देवः' कभी भाग्य देवता कुपित हो सकता है और महान व्यक्ति भी आपदाओं में फंस सकता है । दूसरे दिन राजा की दृष्टि इन तीन पंक्तियों पर पड़ी और उसने चौथी पंक्ति, चौथा चरण लिखा ..."संचितं चापि नश्यति"--ऐसी स्थिति में जो धन का संचय किया है, वह भी नष्ट हो सकता है। मंत्री ने पढ़ा और यह जान लिया कि राजा अपने निश्चय पर दृढ़ है । उसे विचलित कर पाना कठिन है । जिसकी धृति प्रबल होती है, मनोबल मजबूत होता है, वह कभी विचलित नहीं हो सकता। साधना करने वाला व्यक्ति एक निश्चय के साथ साधना में पहला चरण रखता है कि मुझे जागरूक बनना है। सबसे पहले उसे जागरूकता में आने वाले सारे विघ्नों को समाप्त करना होता है। जागरूकता का पहला विघ्न है-चंचलता। वाणी की चंचलता, दृष्टि की चंचलता, हाथ-पैर की चंचलता-ये सारी चलती रहती हैं। हम चंचलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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