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________________ जावन का पाथा स्थान है । हमारी सारी ज्ञान-शक्ति, बुद्धि की शद्धि है मस्तिष्क में। ज्ञानकेन्द्र को विकसित किए बिना ज्ञान नहीं पाया जा सकता। चोटी का स्थान ज्ञानकेन्द्र है। जो इसकी आराधना कर पाएगा वह अपनी असीम ज्ञानशक्ति की आराधना कर पाएगा। दूसरा है दर्शन । दर्शन की शक्ति को विकसित करने के लिए दर्शन केन्द्र की आराधना करनी होती है। यह स्थान दोनों आंखों और दोनों भकुटियों के बीच का स्थान है। यह स्थान जितना निर्मल और सक्रिय होगा, हमारा दृष्टिकोण उतना ही दूरगामी और अन्तर्गामी, सूक्ष्म, भीतर की शक्तियों को उजागर करने वाला होगा। वह एक अखंडित आस्था का और साक्षात्कार की आस्था का निर्माण करने वाला होगा। वह आस्था जो कोरी मान्यता के आधार पर बनती है, वह टिक नहीं पाती । वही आस्था टिक पाती है जो अपने आन्तरिक अनुभवों के आधार पर बनती है। यह क्षेत्र हमारी आन्तरिक अनुभूतियों का क्षेत्र है । यह अन्तर्दृष्टि का क्षेत्र है। यहां जो अनुभव होता है और उस अनुभव के आधार पर जिस आस्था का निर्माण होता है वह आस्था कभी खंडित नहीं होती। किसी की ताकत नहीं कि उस आस्था को खंडित कर सके। सुनी-सुनाई और रटी-रटाई बात को हर कोई खंडित कर सकता है। पर अपनी जानी हुई और अनुभूत की हुई बात को कोई खंडित नहीं कर सकता। तीसरा है चरित्र का आचार । उसके लिए आनन्दकेन्द्र को विकसित करना है। इसका स्थान है----फुफ्फुस के नीचे हृदय के पास। इसकी आराधना करनी है। जिसका यह स्थान सक्रिय होता है वह व्यक्ति निरन्तर आनन्द का अनुभव करता है। चारित्र और आनन्द कोई दो बात नहीं है। चारित्र को आनन्द कहा जा सकता है और आनन्द को चारित्र कहा जा सकता है। जिस व्यक्ति में आनन्द की अनुभूति नहीं है उसका चारित्र विकृत बनता है । जब अपने भीतर से आनन्द प्रकट नहीं होता है तो अपने आपको आनन्दित करने के लिए आदमी तम्बाकू पीता है। जिसे अपना आनन्द उपलब्ध नहीं होता, वह शराब पीकर आनन्द पाना चाहता है । पदार्थ से होने वाले जितने आनन्द हैं वे सारे आदमी के लिए तब जरूरी बनते हैं जब अपना आनन्द उसे प्राप्त नहीं होता। जिस व्यक्ति को अपना आनन्द उपलब्ध हो गया, उसे न शराब की जरूरत है, न तम्बाकू की जरूरत है और न किसी मादक वस्तु की जरूरत है। यह चारित्र हमारे आनन्द की अनुभूति है। इसकी आराधना आनन्द केन्द्र के माध्यम से की जा सकती है । चौथा है तप । तप की आराधना तेजस केन्द्र पर की जा सकती है। तंजसकेन्द्र है नाभि का स्थान । इसकी आराधना से आदमी में सहन करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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