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प्रश्न है नियोजन का
जो समय-प्रतिबद्ध होता है वह पूरा हो जाता है। समयातीत कभी पूरा नहीं होता। भारतीय चिंतन में इसलिए काल और कालातीत दोनों सत्यों पर विचार किया गया। यह है कालबद्ध सत्य और दूसरा है कालातीत सत्य । शाश्वत और अशाश्वत । अशाश्वत है वह पूरा हो जाता है। जो शाश्वत है वह कालिक है, कभी पूरा नहीं होता।।
शिविर में आना दस दिन के लिए, यह कालबद्ध है और शिविर में जो पाया, वह कालातीत है । वह काल से अतीत होना चाहिए। जो पाया, उसे बचाना है, बढ़ाना है । पर एक समस्या बहुत बड़ी है और वह है काल की, समय की। किसी भी आदमी से पूछो कि भाई तुम स्वाध्याय करते हो ? वह कहेगा, नहीं करता । क्या पढ़ने की रुचि नहीं है ? वह कहेगा, रुचि तो है पर समय नहीं है । पढ़ने का भी समय नहीं मिलता, ध्यान करने का भी समय नहीं मिलता, और भी बहुत सारे काम करने का समय नहीं मिलता। यानी मंहगाई बहुत बढ़ी है, पर जितनी मंहगाई समय की बढ़ी उतनी किसी की भी नहीं बढ़ी है। समय इतना मंहगा हो गया है कि चाहे बहुत बड़ा उद्योग, व्यापार करने वाला हो और चाहे साधारण मजदूरी करने वाला हो, हिन्दुस्तान के शासन को चलाने वाला हो और चाहे हिन्दुस्तान से सम्बन्ध न रखने वाला हो, सबके पास समय की कमी है। कोई भी इसका अपवाद कैसे होगा ? मैंने इस प्रश्न पर बहुत बार सोचा कि मंहगा हो गया समय और इतनी बड़ी शिकायत कि समय नहीं मिलता, क्या सचमुच यह समस्या है ? सोचने के बाद निष्कर्ष पर पहुंचा कि कमी समय की नहीं है, कमी नियोजन की है । लोग नियोजन करना नहीं जानते । समय तो बहुत है । २४ घण्टा किसको कहते हैं ! इतना लम्बा-चौड़ा है एक दिन का समय कि इसमें तो आदमी चाहे जितना काम कर सकता है । पर नियोजन के अभाव में इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। हम व्यवस्था करना नहीं जानते, नियोजन करना नहीं जानते । चौबीस घंटों में से काम में मुश्किल से किसी का छह या आठ घण्टा लगता होगा। बाकी समय तो निकम्मा ही जाता है। और छह घण्टा या सात घंटा नोंद का मान लें। बारह घंटा को निकाल भी दें, तो शेष बारह घण्टा बचते हैं। करते क्या हैं ? लगभग निकम्मा काम होता है । _____ जीवन के दो पहलु हैं-वैयक्तिक और सामाजिक । हर समय को दो
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