________________
प्रश्न है अखंड व्यक्तित्व का
११५ अधिकार का लोभ हो, चाहे पैसे का लोभ हो और चाहे प्रतिष्ठा का लोभ हो, अपने प्रतिद्वंद्वी को बहुत सारे लोग मरवा डालते हैं, चुनाव में मरवा डालते हैं। इसके पीछे भी उनका लोभ ही काम करता है। वह सोचता है, प्रतिद्वन्द्वी रहेगा तो मैं विजयी नहीं बन सकता । वह मेरे आगे आएगा। वह रहा तो मैं मंत्री नहीं बन सकता। न जाने कैसे-कैसे विचारों में ऐसा होता है ? जब तक लोभ की वृत्ति नहीं बदलती, तब तक क्रूरता नहीं मिटती और क्रूरता नहीं मिटती तब तक आदमी नैतिक नहीं बनता और जब तक नैतिक नहीं बनता तब तक वह धार्मिक नहीं बन सकता। अगर यह पाठ हमारे धार्मिकों ने पढ़ाया होता तो शायद दूसरी स्थिति बनती। पर ऐसा लगता है कि यह पाठ कम पढ़ाया गया । सीधा पाठ पढ़ाया गया कि यह उपासना करो, वह क्रिया करो। इतने कर्मकांड जोड़ दिए कि उनमें कुछ करना नहीं पड़ता यानी अपना स्वार्थ नहीं छोड़ना पड़ता और सोचता है कि मैं धार्मिक बन गया। उसका व्यक्तित्व खंडित रह जाता है।
इस सारे संदर्भ में प्रेक्षाध्यान का मूल्यांकन करें। यह अध्यात्म की प्रक्रिया है, कोई सम्प्रदाय की प्रक्रिया नहीं है। शुद्ध अध्यात्म की प्रक्रिया है, यानी अपने भीतर देखने की प्रक्रिया है। अपनी सफाई करने की प्रक्रिया है । सफाई करना बहुत जरूरी है। जब तक कूड़ा-कचरा भीतर रहेगा, आप स्वस्थ नहीं रह सकते । स्वस्थ होने के लिए कड़े-कचरे को निकालना बहुत जरूरी है। स्वस्थ होने की सबसे पहली प्रक्रिया है, सफाई करना । जितना मल जमा है, कूड़ा-करकट जमा है, उसकी सफाई हो जाए, अपने आप स्वास्थ्य प्रगटेगा । स्वास्थ्य प्रगटता है, स्वास्थ्य को लाना नहीं होता।
हमारे विचारों और भावों में बहुत सारी मलिनताएं आती रहती हैं । जब तक भीतर नहीं झांकते, तब तक सफाई नहीं होती। ज्यों ही भीतर देखना शुरू किया और सफाई शुरू हो जाती है। कूड़ा निकलना शुरू हो जाता है। भीतर देखने का एक बहुत बड़ा परिणाम है कि जितने विजातीय कण जमा पड़े हैं आप देखना शुरू करेंगे तो विजातीय तत्त्वों का आसन डोल जाएगा। बाहर निकलना पड़ेगा, फिर भीतर रह नहीं सकते।
जिसने भीतर में देखा, उसने सफाई का अभियान शुरू कर दिया। इसके द्वारा व्यक्तित्व अखंड बन जाएगा। आप फिर इस सूत्र को याद करें कि अखंड व्यक्तित्व के लिए हमें दो दिशाओं में प्रस्थान करना है, बाहर को भी देखना है और भीतर को भी देखना है । न केवल बाहर और न केवल भीतर । दोनों एकांगी बातें हो जाएंगी। हमारी यात्रा भीतर भी चले और बाहर भी चले। इन दोनों कोणों से हम देखें और सोचें तो हमारा दष्टिकोण सर्वांगीण होगा, अखंड बनेगा और फिर जो भीतर के कारण बाहर की समस्याएं उलझ रही हैं उन्हें सुलझाने का मौका मिलेगा। हम बाहर की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org