________________
अश्रुवीणा / ७३
एक सोपान है। आज भी जैन महाव्रतियों में अभिग्रह-साधना की परम्परा सहन रूप में प्रचलित है। परिकर, काव्यलिंग एवं अनुप्रास अलंकार हैं।
(१०) खेदं स्वेदो बहिरपनयजात आकस्मिके न, प्रोल्लासे नाऽभ्युदयमयता दर्शनाद् विश्वभर्तु: कामं भ्रान्तां किमपि किमपि प्रस्मरन्तीं स्मरन्ती, स्वस्थां चक्रे पुलकिततर्नु चन्दनां स्मेरनेत्राम्॥
अन्वय- आकस्मिकेन विश्वभर्तुः दर्शनात् अभ्युदयमयता प्रोल्लासेन खेदं स्वेदो बहिरपनयञ्जात। कामं भ्रान्तां किमपि किमपि प्रस्मरन्ती स्मरन्ती पुलकिततर्नु स्मेरनेत्राम् चन्दनाम् स्वस्थां चक्रे। ___ अनुवाद- अचानक विश्वपालक के दर्शन से उत्पन्न अभ्युदयमय प्रोल्लास द्वारा खेद खिन्नता के रूप में बाहर निकल गया।वह भ्रान्त बनी चन्दनबाला अपने पूर्व के कष्टों का स्मरण करती हुई प्रफुल्लित आँखों एवं पुलकित शरीर वाली चन्दनबाला स्वस्थ हो गयी।
व्याख्या- इष्ट प्राप्ति से खेद समाप्त हो जाता है। स्वेद और रोमांच उत्पन्ना हो जाते हैं। चन्दनबाला भगवान को पाकर धन्य-धन्य हो गयी। इसमें परिकर, काव्यलिंग आदि अलंकार हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org