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७२ / अश्रुवीणा
(८)
क्रीता कन्या नृपतितनया मुण्डिता चिह्निताऽपि, पाशैर्बद्धा करचरणयोस्त्र्याहि कक्षुत्क्ल्मा च । संभिन्दाना व्यथितहृदया देहली नाम पद्भ्यां, मध्याह्नोर्ध्व प्रतनु रुदती सूर्पकोणस्थमाषान् ॥
(९) दद्याद् भोक्ष्ये ध्रुवमितरथा नाहरिष्यामि किञ्चित्, षण्मासान्तं सुविहिततपा नैव पास्यामि नीरम् ! श्रुत्वाऽप्येतत् सतनुमनसो वेपनं तद् व्रतं यच्छ्रद्धा-रेखा भवति खचिता नैकरूपाजनानाम्॥(युग्मम्)
अन्वय-नृपति तनया क्रीता कन्या मुण्डिता चिह्निताऽपि करचणयोः पाशैर्बद्धा त्र्याहिक क्षुत्क्लमा संभिन्दाना व्यथितहृदया देहली नाम पद्भ्याम् प्रतनु रूदति च मध्याह्नोर्ध्वं सूर्प कोणस्थ माषान् दद्यात् भोक्ष्ये इतरथा षण्मासान्तं न किञ्चित् आहरिष्यामि नैव नीरम् पास्यामि ध्रुवम्। तद्वतं एतत् श्रुत्वा सतनु मनसो वेपनम् । यत् जनानाम् श्रद्धा रेखा नैकरूपा खचिता भवति (युग्मम्)।
अनुवाद- (भगवान् महावीर ने इस प्रकार अभिग्रह किया) राजकुमारी, क्रीत (खरीदी हुई) कन्या, मुण्डित, कलंकित हाथ और पैर पाश में बँधी हुई, तीन दिन से क्षुत्पीड़ित, पीड़ित एवं व्यथित हृदय वाली, देहली पर खड़ी (एक पैर द्वार के बाहर एवं एक भीतर) और लगातार रोती हुई (आँसू बहाती हुई) तृतीय प्रहर में छाज के कोने में स्थित (उबले हुए) उड़द को यदि भिक्षा दान देती है तब मैं (ग्रहण कर) भोजन करूँगा अन्यथा छ: मास तक न कुछ भोजन ग्रहण करूँगा और पानी भी नहीं पीऊंगा। उस कठोर अभिग्रहव्रत को सुनकर (सामान्य मनुष्य) का शरीर और मन काँपने लगता है। क्योंकि मनुष्यों की श्रद्धा की रेखा अनेक रूप में खचित होती है।
व्याख्या-भगवान् दृढ़प्रतिज्ञ एवं कठोरव्रती थे। अपने संयम यात्रा में कठोर से कठोर व्रतों को धारण करते थे। अभिग्रह, प्रतिज्ञा या संकल्प व्रत-साधना का
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