SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ / अश्रुवीणा खलु स्याद् वाक्यभूषायां जिज्ञासायां च सान्त्वने। वीप्सामान निषेधेषु पूरणे पदवाक्ययोः। मेदिनी 184.73 रसितो - भुक्तो । आस्वादनस्नेहनयोः से क्त प्रत्यय होकर बना है। जिन्होंने श्रद्धा स्वाद का आस्वादन नहीं किया उसका जन्म ही वृथा है। अलंकार अनुप्रास । व्रजति । विलयम्-काव्यलिङ्गालंकार । सत्सपर्का - तर्काः। अर्थान्तर न्यासालंकार । _ 'सर्व द्वैधं व्रजति विलयम्' का श्रद्धा- स्वादो. के द्वारा समर्थन किया गया है। जहाँ सामान्य का विशेष से विशेष का सामान्य से समर्थन किया जाता है उसे अर्थान्तरन्यासालंकार कहते हैं। सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते। यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्यणेतरेण वा॥ काव्यप्रकाश 10.165 (५) चित्रं चित्रं तव सुमृदवः प्राणकोशास्तथापि, कष्टोन्मेषे दृढतममतौ मानवे चानुरागः। श्रद्धाभाजौ जगति गणिताः सन्दिहाना असंख्याः, श्रद्धा-पात्रं भवति विरलस्तेन कश्चित्तपस्वी॥ अन्वय - (हे श्रद्धे!) तव प्राणकोशा: सुमृदवः तथापि कष्टोन्मेषे दृढतममतौ मानवे अनुराग: च इति चित्रम् चित्रम् । जगति श्रद्धाभाजो गणिताः सन्दिहाना असंख्याः। तेन कश्चित् विरलः तपस्वी श्रद्धा-पात्रम् भवति। अनुवाद - हे श्रद्धे! तुम्हारे प्राणकोश (अभ्यन्तर भाग) अत्यन्त कोमल हैं फिर भी कष्ठ के उन्मेष (बवंडर) में कठोर (स्थिर) मतिवाले मनुष्य में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy