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५४ / अश्रुवीणा
यहाँ प्रथम श्लोक में ही कवि को वह अनाविलता एवं सहजता काम्य है जो जन्म जन्मान्तरीय तप:साधनों के अभ्यास से कर्मविच्छर्दित होने पर ही प्रकट होती हैं।
विशेष - यहाँ पर अमूर्त या भाव पदार्थ श्रद्धा का मूर्त चित्रण किया गया है इसलिए उपचारवक्रता - 'अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप' का श्रेष्ठ उदाहरण बनता है। प्रबोधचन्द्रोदय नाटक में भाव पदार्थों - श्रद्धा, मोह, विवेक आदि का मूर्त चित्रण किया गया है। जैन परम्परा के मोहपराजय, ज्ञानसूर्योदय, मुद्रितकुमुदचन्द्र आदि नाटकों में भाव पदार्थों को पात्र के रूप में उपस्थित किया गया है।
(२) संयोगात्तेऽनुभवति नरः पामरञ्चामरेन्द्रं, व्याघातात्ते प्रवर-चतुरञ्चाप्यनादेयवाक्यम्। पूज्याऽपूज्यान् गुरुकलघुकान् सज्जनाऽसज्जनांश्च, भावाभावौ विभजति जनस्तत्र मानं तवैव ॥
अन्वय - ते संयोगात् नरः पामरम् अमरेन्द्रम् अनुभवति। ते व्याघातात् प्रवरचतुरम् च अपि अनादेयवाक्यम् (भवति) । जनः पूज्यापूज्यान् गुरुकलघुकान् सज्जनासज्जनांश्च विभजति तत्र तवैव भावाभावौ मानं (भवति)।
अनुवाद- (हे श्रद्धे!) तुम्हारे संयोग से व्यक्ति पामर (निकृष्ट) को भी अमरेन्द्र (इन्द्रदेव, श्रेष्ठ) मानने लगता है, लेकिन तुम्हारे व्याघात (विरोध, अभाव) से उत्कृष्ट चतुर व्यक्ति के वचन को स्वीकार नहीं करता है। मनुष्य जब पूज्य-अपूज्य, बड़े-छोटे, सज्जन-दुर्जन में विभाजन करता है तब तुम्हारा रहना या नहीं रहना ही मानदण्ड बनता है।
व्याख्या - इसमें श्रद्धा का महत्व प्रतिपादित है। श्रेष्ठ-निकृष्ट, पूज्य-अपूज्य आदि का निर्णय श्रद्धा के धरातल पर ही होता है। जिसके प्रति श्रद्धा है वह
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