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५० / अश्रुवीणा
शिशून् - शिशुओं को। शिशु का द्वितीया बहुवचनान्त प्रयोग। शिशु - बालक, बच्चा। पोत: पाकोऽर्भको डिम्भः पृथुकः शावकः शिशुः-अमरकोष 2.5.38। दिवादिगणीय शो तनूकरणे धातु से 'शः कित् सन्वच्च' (उनादिसूत्र 1.20) से 'उ' प्रत्यय सन्वद्भाव होने से द्वित्व, वत्व आदि करने पर शिशु बनता है। श्यति शायते वा शिशुः । भ्वादिगणीय 'शश प्लुतगतौ' धातु से भी शिशु शब्द बनता है। इत्व और उत्व करने पर शिशु बनता है।
प्रणयसि - अनुरक्त होती हो, प्रेम करती हो । प्र उपसर्गपूर्वक नी धातु का लट्लकार मध्यमपुरुष एकवचन का रूप है।
तर्कलब्धावसादात् व्यथितमनसः- तर्क के अवसाद (खिन्नता) को प्राप्त करने से व्यथित मन वाले। यह पद विज्ञान का विशेषण है।
विज्ञान् – विज्ञ शब्द का द्वितीया बहुवचन प्रयोग है । विज्ञ = जानने वाला, प्रतिभावान्, विशेषज्ञ, कुशल, शास्त्रचतुर आदि। ___ अमरकोष (3.1.4) में प्रवीण, निपुण, निष्णात, शिक्षित, वैज्ञानिक, कृतमुख, कुशल आदि के अर्थ में विज्ञ शब्द को स्वीकार किया है।
तर्केण अमा - तर्क के साथ। तर्क के समीप । अमा -- के समीप, के साथ अर्थ का वाचक अव्यय है। अमा सह समीपे च (अमरकोश-- 3.3.250 अमा सहाान्तिकयोः - विश्वकोश 189.43) ___ अनवस्थान हेतुःन विदितः - सम्बन्ध या स्थिति न होने के कारण ज्ञात नहीं है। तात्पर्य है कि श्रद्धा और तर्क को कोई दूर-दूर का सम्बन्ध नहीं होता। जहाँ श्रद्धा होगी वहाँ तर्क नहीं होगा और जहाँ तर्क होगा वहाँ श्रद्धा कहाँ से। तर्क सन्देह से उत्पन्न होता है और श्रद्धा सन्देह की विनाशिनी है। आदर्श चरितम् (2/75) में द्रष्टव्य है-श्रद्धा संदेहनाशिनी। ___ अलंकार - इस प्रथम श्लोक में अनेक सुन्दर अलंकार सहजतया अपनी रूप माधुरी का विस्तार करते दिखाई पड़ते हैं। अनुप्रास, परिकर, काव्यलिंग, संसृष्टि आदि अलंकार हैं।
दुग्धदिग्धास्यदन्तान् - अनुप्रास। अनुप्रास - वर्णसाम्यमनुप्रासः (काव्यप्रकाश 10.104) वर्णों की समानता
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