SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अश्रुवीणा का गीतिकाव्यत्व / ३५ विस्तार-वीर, रौद्र और वीभत्स रस में विस्तार (ओजगुण) की स्थिति स्वीकृत है,38 भव्यता, महानता, उदात्तता आदि इसके गुण माने जाते हैं । अश्रुवीणा में यद्यपि रौद्र, वीभत्सादि रसों का सर्वथा अभाव है लेकिन उदात्त, भव्य आदि गुण तो विद्यमान हैं ही। उपास्य के माहात्म्य का ज्ञान, उसकी महनीयता का आभास भक्ति का मूल है, अन्यथा प्रेम जारवत् हो जाता है । ऋषि नारद के शब्द प्रामाण्य हैं-तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः। तद्विहीनं जाराणामिव अश्रुवीणा की नायिका को दैन्यावस्था में भी अपने प्रभु की महनीयता एवं उदात्तता का ज्ञान है । वह आँसू से कहती है-हे आँसू ! उस प्रभु को कोई सेना नहीं रोक सकती है। वह सबसे शक्तिमान् है। वह यति-पति पवित्रता में विश्वास करता है। अन्तर्वेदी तथा प्रकरण पटु है। वह पवित्र महर्षि आलोक की आधार-भूमि है। यह प्रसंग चित्त विस्तार में समर्थ है।अतएव भव्य और उदात्त की उपस्थिति होने से यहां ओज गुण की स्थिति मानी जा सकती है। विकास-चित्त-विकास प्रसाद गुण का मूल है। आनन्द वर्धन के अनुसार प्रसाद गुण सभी रसों में पाया जाता है-'स प्रसादो गुणोज्ञेयः सर्वसाधारणक्रियः ।41 मम्मट ने कहा है कि सूखे ईंधन में अग्नि और धुले वस्त्र में स्वच्छ जल के समान जो सहसा चित्त में व्याप्त हो जाए, वह सभी रचनाओं एवं रसों में रहने वाला प्रसाद गण है। आचार्य भरत ने स्वच्छता, सहजता, सरलता आदि को प्रसाद गुण के प्रधान तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है। ये तत्त्व चित्त-विकास में सहायक होते हैं । चन्दनबाला की स्वच्छता एवं सहजता तथा महावीर की पवित्रता आदि को सुगंधि अश्रुवीणा में सर्वत्र व्याप्त है। स्वच्छता का दृश्य द्रष्टव्य है - आलोकाग्रे वसतिममलामाश्रयध्वेऽपि यूय मालोकानामधिकरणभूरेषः पुण्यो महर्षिः। 15. वैदर्भी का सौन्दर्य- गीति-काव्य के लिए वैदर्भी रीति सबसे उपयुक्त मानी जाती है। कालिदास के मेघदूत एवं जयदेव के गीत-गोविन्द में वैदर्भी का एकाधिपत्य है । वैदर्भी में माधुर्यगुण व्यंजक वर्ण, ललित पद एवं अल्प समास या समासाभाव होता है। अश्रुवीणा के प्रत्येक पद्य में वैदर्भी का ललित-सौन्दर्य विद्यमान है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है। भक्ति के उद्रेक से चन्दना की स्थिति का वर्णन - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy