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३४ / अश्रुवीणा
कालिदास का मेघदूत मन्दाक्रान्ता छन्द में निबद्ध है। विवेच्य काव्य-ग्रन्थ का छंद भी मन्दाक्रान्ता ही है, जिसका लक्षण इस प्रकार है
__ मन्दाक्रान्ताऽम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ ग युग्मम्।” अर्थात् जिसके प्रत्येक चरण में मगण, भगण, तगण, नगण और अन्त में दो गुरु वर्ण होते हैं। चार, छ: एवं सात वर्गों पर यति होती है। भावों की मञ्जुलता
और कल्पना की कमनीयता आदि के लिए मन्दाक्रान्ता को सबसे अधिक उपयुक्त माना जाता है । अश्रुवीणा में भक्ति, श्रद्धा, समर्पण आदि भावों के चित्रण में मन्दाक्रान्ता का सफल प्रयोग हुआ है। उदाहरण द्रष्टव्य है-जिनकी आँखें पवित्र आँसू से प्रक्षालित हो गयी हैं उन्हीं की अन्तःकरण की सहज वृत्तियाँ दूसरे को जगा सकती हैं
चक्षुर्युग्मं भवति सुभगैः क्षालितं यस्य वाष्पैः, तस्यैवान्त:करणसहजा वृत्तयः प्रेरयेयुः । पल्याः कोष्णैः श्वसनपवनैर श्रुधाराभिषिक्तै
र्धन्येनाऽहो भवजलनिधेर्दुस्तरं वारितीर्णम् ॥ 14. काव्य गुणों का साम्राज्य- काव्य की आत्मा रस है और गुण आत्मभूतरस के उत्कर्षाधायक होते हैं। जैसे शौर्यादि गुण आत्म-शोभासंवर्द्धक होते हैं उसी प्रकार काव्य-गुण रस रूपी आत्मा के विकास में सहायक होते हैं 'उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः। माधुर्य, ओज और प्रसाद तीन गुण प्रमुख हैं। रसाभिभूत सामाजिकों के चित्त की तीन अवस्थाएँ होती हैं-द्रुति, विस्तार और विकास । द्रुति, विस्तार और विकास में क्रमशः माधुर्य,
ओज और प्रसाद की स्थिति मानी जाती है। __द्रुति-शृंगार, करुण और शान्तरस में 'द्रुति' चित्तावस्था को स्वीकार किया गया है। अश्रुवीणा में शान्तरस की प्रधानता है। भक्ति आद्योपान्त कलित है अतएव माधुर्य गुण की छटा स्वत: विद्यमान है । सामने आकर भी चन्दना के हृदयेश लौट गए। उसका आशा-महल ढह गया। वह पुत्तलिकावत् हो गई। आँसू मात्र से ही उसके जीवन की सूचना मिल रही थी।" आँसू, स्तब्धता, मूर्छा, विषाद, श्रद्धा एवं निर्वेदादि द्रुति के लक्षण हैं । अश्रु वीणा में ये सभी विद्यमान हैं।
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