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________________ १५२ / अश्रुवीणा निःस्वत्वम्-दरिद्रता, निर्धनता। निःस्व-निर्धन, दरिद्र। 'अतिप्रयोगो निषिद्ध' जीवन के लिए उपयोगी सूक्ति है। (७९) एते तारा वियति वितताः सन्ति संप्रेक्षणीया, येषामायुः क्षणिकमणुकं ज्योतिरास्थानमभ्रम् । जीवन्त्ये ते तदपि यदहो भ्राजमाना अजस्त्रं, विच्छायानां न खलु भवति प्रस्तुतं तारकत्वम् ॥ अन्वय-एते संप्रेक्षनीयाः ताराः वियति वितताः सन्ति येषाम् आयु: क्षणिकम् ज्योतिःअणुकम् आस्थानम् अभ्रम् तदपि यदहो एते अजस्रं भ्राजमाना: जीवन्ति । विच्छायानाम् खलु तारकत्वम् प्रस्तुतम् न भवति। ___ अनुवाद-ये दर्शनीय तारागण आकाश में फैले हुए हैं। जिनकी आयु क्षणिक है, ज्योति लघु है, स्थान (आधार) बादल है, फिर भी ये अजस्त्र चमकते हुए (प्रसन्नता के साथ) जीवन धारण करते हैं । जिनका चमक समाप्त हो गया उनका ताराकत्व सिद्ध नहीं होता है अर्थात् तारे नहीं होते हैं। व्याख्या-इस श्लोक में कवि ने जीवन को सुखमय बनाने के लिए अमोघ सूत्र का निर्देश दिया है। जितना दिन तक ही जीवित रहना हो प्रसन्नता पूर्वक जीवन धारण करें। विपरीत परिस्थितियों में भी जो प्रसन्न रहता है वही मनुष्य कहलाने का अधिकारी है। विभावना विशेषोक्ति अलंकार हैं। आयु की क्षणिकता-कारण है लेकिन चमक (प्रसन्नता) का अभाव रूप कार्य नहीं है इसलिए विशेषोक्ति अलंकार। चमक रूप कार्य है लेकिन उसका कारण आयुष्यादि की अधिकता नहीं है। कारण के अभाव में कार्य का होना विभावना अलंकार है। अर्थान्तरन्यास अलंकार भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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