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________________ अश्रुवीणा / १५१ जगत का विशेषण । सुरपदम् = आकाशम् । किसी व्यक्ति की महानता उसके गुणों पर ही होती है। आकाश इसलिए महान् है क्योंकि वह सबको आधार देता है । अवगासदाण जोग्गं आगासं । अवगाहलक्षणम् आकाशः । आकाशस्य अवगाह : आदि परिभाषा पंक्तियाँ हैं । दृष्टान्त अलंकार भी है । (७८) कुल्माषा नाऽजनिषत तवेतः प्रतिक्रान्तिहेतु:, स्वादोनाम स्पृशति न पलं त्यक्तदेहस्य जिह्वाम् । निः स्वत्वञ्चाप्यभवदिह नो मुक्तसर्वस्वकस्य, हर्षोत्कर्षोऽभवदिति यतोऽति प्रयोगो निषिद्धः ॥ अन्वय-तव इतः प्रतिक्रान्तिहेतुः कुल्माषा न अजनिषत त्यक्तदेहस्य स्वादो नाम जिह्वाम् पलम् न स्पृशति । इह मुक्तसर्वस्वकस्य निःस्वत्वम् च न अभवत् हर्षोत्कर्षो अभवत् इति । यतः अतिप्रयोगो निषिद्धः । अनुवाद-भगवान् (भिक्षा लिए बिना ) यहाँ से आप लौट गए। इसका कारण कुल्माष (उड़द ) नहीं थे। क्योंकि देहासक्ति को त्याग कर देने वाले व्यक्ति की जिह्वा को स्वाद क्षणभर भी स्पर्श नहीं कर पाता है। जो सर्वस्वमुक्त हो चुका है (सम्पूर्ण बन्धन टूट गए हैं) उसके लिए मेरी सर्वस्वहीनता ( दीनता) भी (लौटने में ) कारण नहीं हो सकती है। इसमें हर्ष का उत्कर्ष ही कारण है क्योंकि अति प्रयोग सर्वत्र वर्जनीय है । व्याख्या - साधना का प्रथम सोपान है आत्ममीमांसा, अपनी गलतियों को देखना । वही व्यक्ति जीवन-यात्रा में सफल हो सकता है जो अपने दोषों का निरीक्षण करता है, आत्मविमर्श का महत्व सर्वस्वीकृत है। इस श्लोक में कवि ने यह निर्देश किया है कि किसी भी भाव का आधिक्य दुःखकारक होता है। त्यक्तदेह और मुक्तसर्वस्व भगवान् की बन्धन- विमुक्तता को उद्घाटित कर रहे हैं । काव्यलिंग और अर्थान्तरन्यास अलंकार हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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