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________________ १४० / अश्रुवीणा पानिपेक्षाः हन्त दैतीयीकम् अमलम् नयनम् न उन्मीलयन्ति। अनुवाद-प्रत्येक मार्ग पर दोनों तरफ घड़े स्थिर रखे हैं। कुछ उत्कृष्ट अमृत से परिपूर्ण हैं, अधिक हाला से। हाला से उन्मत्त व्यक्ति प्रथम चरण में ही अन्य पार्श्व की ओर (अमृत-कलश की ओर) नहीं देखते (केवल हाला की ओर ही देखते हैं)। ओह ! द्वितीय पार्श्व भाग की ओर अपनी अमल दृष्टि को नहीं खोलते। ___व्याख्या-कवि का स्पष्ट अंकन है कि संसार अच्छाई की ओर न जाकर बुराई की ओर स्वत: चला जाता है । इन्द्रियां अधिक बुराई की ओर ही जाती हैं। प्रतीक का सुन्दर विधान किया गया है। अच्छाई और बुराई के प्रतीक के रूप में अमृत और हाला से परिपूर्ण कुम्भों को उपस्थापित किया गया है। बुराई की ओर सहज प्रयाण होता है । अहंकार, कामादि से उन्मत्त व्यक्ति नीचे ही नीचे चला जाता है, निरन्तर घोर पतन की ओर अग्रसर होता जाता है। हाला अहंकार कामादि का प्रतीक है। काव्यलिंगालंकार है। हाला-शराब, मदिरा । सुधा=अमृत। हन्त प्रसन्नता, हर्ष, करुणा, शोक आदि का अभिव्यंजक अव्यय। (६६) उन्मत्तानां दिनमथ निशा नैति कञ्चिविशेषः, कार्याकार्ये तनुरपि भिदा नैति तेषां गुणोऽसौ। यावञ्चक्षुर्भवति पिहितं हालया तावदेषां, सौख्यं पश्चाद् भवति तिमिरं व्याप्तमक्ष्णोः समन्तात्॥ अन्वय-उन्मत्तानाम् दिनमथ निशा कश्चित् विशेषः न एति । कार्याकार्ये तनुरपिभिदा न एति । तेषाम् असौ गुणः । यावत् चक्षुः हालया पिहितम् तावत् एषाम् सौख्यम् । पश्चात् अक्ष्णोः समन्तात् तिमिरम् व्याप्तम् भवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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