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अश्रुवीणा / १३५
(६०) . श्रद्धयानामधिकृ तमिदं चित्रमस्ति प्रभुत्वं, श्रद्धालूनां विसदृशमहो चेतसः सौकुमार्यम् । भारं स्फारं वहति यदहो तानुपालब्धुमारादासन्नांश्च प्रति भवति तत् स्विन्नमास्था प्रगल्भम्॥
अन्वय-अहो श्रद्धालुनाम् चेतसः विसदृशम् सौकुमार्यम् यदहो (तान्) उपालब्धुम् स्फारम् भारम् वहति । आरात् तान् आसन्नान् प्रति तत् प्रगल्भम् आस्थास्विन्नम् भवति। श्रद्धेयानाम् इदम् चित्रम् प्रभुत्वम् अधिकृतमस्ति।
अनुवाद-धन्य है श्रद्धालुओं के चित्त की विलक्षण सुकुमारता। क्योंकि अपने श्रद्धेय को उपालम्भ देने के लिए वह अधिक भार वहन करता है (सोचता रहता है) लेकिन अपने निकट आए हुए श्रद्धेय को प्राप्त कर उसकी प्रगल्भता (उपालम्भ देने की शक्ति) आस्था (श्रद्धा) से पसीज जाती है। श्रद्धेय जनों की यह अद्भुत प्रभुता फैली रहती है।
व्याख्या-भक्तजनों के हृदय की सुकुमारता और स्वामी की महिमा का वर्णन किया गया है। स्फार अधिक, पुष्कल, बड़ा स्फाय धातु से रक् प्रत्यय । आरात्=(अव्यय) निकट, पास, दूर, दूरस्थ यहाँ पर निकट अर्थ है।
प्रगल्भम्-हिम्मत, उत्साह, संकल्प। प्र उपसर्गपूर्वक गल्भ घाष्ट्ये (भ्वादिगणीय) धातु से अच् प्रत्यय।
स्विन्नम्-स्वेदितम् पसीज गया। स्विद्+क्त प्रत्यय। प्रभुत्वम्-आधिपत्यम्, स्वामित्वम्, अधिकारः शासनम् वा। प्रभुत्व। काव्यलिंग, विभावना, विशेषोक्ति, विरोध, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकार
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