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________________ १३४ / अश्रुवीणा स्वामिना विवशाकृता। हि दैवे वक्रे प्राञ्जलम् जगत् अपि वक्रम् भवति । अनुवाद-ज्येष्ठ भ्राता (नन्दिवर्धन) के नेत्र सलिल (आँसुओ) ने दीक्षा लेने की इच्छा वाले तुमको (दीक्षा लेने से) रोक दिया था। मैं मानती हूँ कि यहाँ तुम्हारा जन्म आँसुओ को पोंछने (संसार के दु:ख को दूर करने) के लिए ही हुआ है। किन्तु मुझे आँसुओ के भार को ढोने के लिए स्वामी ने क्यों विवश किया? क्योंकि भाग्य के टेढ़े होने पर निश्छल जगत् भी वक्र (टेढ़ा) हो जाता है। व्याख्या-उपालंभ का स्वर अनुगूजित है। भगवान् का जन्म संसार के दुः खों के विनाश के लिए हुआ है तो फिर चन्दनबाला की वेदना को कैसे नहीं समझ पाए । समय, काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि कारणों के अतिरिक्त एक अन्य प्रबल कारण नियति भी है। भाग्य है। भाग्य के टेढ़े हो जाने पर सब कुछ टेढ़ा हो जाता है। भाग्य की बलवत्ता पर महाप्रज्ञ ने यहाँ बल दिया है। नन्दिवर्धन का पौराणिक संदर्भ निर्दिष्ट है । आचारांग और कल्पसूत्र में निर्देश है कि भगवान् के ज्येष्ठ भाई का नाम नन्दिवर्धन था। शीलांक ने नन्दिवर्धन को छोटे भाई के रूप में उल्लेख किया है। आवश्यक चूर्णि पृ. 249, आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति पृ.183, मलधारी वृत्ति 260 तथा गुणचन्द्रकृत महावीरचरियं पृ.134 में निर्दिष्ट है कि 28 वर्ष के उम्र में भगवान् ने अपने नन्दिवर्धन, सुपार्श्व आदि स्वजनों को बुलाकर कहा-"मैं अब दीक्षा ग्रहण करूंगा" नन्दिवर्धन का शोक द्विगुणित हो गया। उसने भगवान् से कहा--अभी माता-पिता के वियोग दुःख को हम विस्मृत ही नहीं कर पाए कि तुम दीक्षा ग्रहण करने लगे। अभी दो साल तक रुको, हमारा शोक शान्त हो जाएगा, तब दीक्षा ग्रहण करना। बाद में भगवान् ने दीक्षा ग्रहण की। प्राञ्जलम् निश्छल, निष्कपट, स्वच्छ। वक्र-छल, कपट । दैव=भाग्य। इस श्लोक में विभावना, विशेषोक्ति और अर्थान्तरन्यास अलंकार है । सुन्दर सूक्ति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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