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________________ १२८ / अश्रुवीणा (५३) वाष्पा जाताः प्रकृतसफलाश्चापि निःश्वासशब्दाः, संदेशा मे मनसि लिखिता व्यञ्जनं लब्धवन्तः। दैवं नूत्ला दिशमुपदिशद् भाति भास्वानकस्मात्, पादान् धत्ते पुनरविमुखान् सर्वतश्चक्षुरेषः। अन्वय- वाष्पाः निश्वासशब्दाश्चापि प्रकृतसफला जाताः। मे मनसि लिखिता संदेशा अपि व्यंजनं लब्धवन्तः। दैवं नूत्नां दिशम् उपदिशत् । भास्वान् अकस्मात् भाति । एष सर्वतश्चक्षुः पुनः अविमुखान् पादान् धत्ते। अनुवाद- आँसू और निःश्वास शब्द भी आरंभ किए हुए कार्य में सफल हो गए। मेरे मन में अंकित संदेश भी अभिव्यंजित हो गए (भगवान् के पास पहुँच गए)। भाग्य नई दिशा दे रहा है। अचानक (भाग्य) सूर्य का उदय हो रहा है । यह सर्वज्ञ पुनः अविमुख पैरों को धारण कर रहा है। (मेरी ओर पदन्यास कर रहा है। पैरों को बढ़ा रहा है)। व्याख्या-समुच्चय अलंकार है। एक कार्य की सिद्धि के लिए एक कारण के होते हुए भी कारणों की उपस्थिति समुच्च्य अलंकार है। तत्सिद्धिहेतावेकस्मिन् यत्रान्यत्करं भवेत् समुच्चयोऽसौ-काव्यप्रकाश 10.116 प्रकृत सफला-आरम्भ किए हुए कार्य में सफल। प्रकृत-आरम्भ किया हुआ, शुरू किया हुआ, नियुक्त किया हुआ। व्यञ्जनम्-स्पष्ट करना, प्रकट करना। दैव=भाग्य, नूत्ना=नया, नवीन प्रत्यग्रोऽभिनवो नव्यो नवीनो नूतनो नवः नूत्नश्च-अमरकोश 3.1.78 नव+ल प्रत्यय । नवस्य नूरादेशस्त्नप्तनप्खाश्च प्रत्यया (वार्षिक 5.4.30) से नव का नू आदेश ल प्रत्यय करने पर नून बना है। सर्वतश्चक्षुः में परिकर अलंकार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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