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अश्रुवीणा । १२७
(५२)
आश्वस्तापि क्षणमथ न सा वाष्पसङ्गं मुमोच, प्लुष्टो लोकः पिवति पयसा फूत्कृतैश्चापि तक्रम्। संप्रेक्षायामधृतितरलाश्चक्षुषां कातराणामासन् भावाः किमिव दधतो मज्जनोन्मज्जनानि ॥
अन्वय- सा आश्वस्ता अपि क्षणमथ वाष्पसंग न मुमोच। पयसा प्लुष्टो लोकः तक्रम् फूत्कृतैः पिवति । कातराणाम् चक्षुषाम् संप्रेक्षायाम् अधृतितरलाः भावाः किमिव मज्जनोन्मज्जनानि दधतो आसन् ।
अनुवाद- (भगवान् के रुकने पर) वह आश्वस्त होती हुई भी क्षणभर तक आँसुओ की संगति नहीं छोड़ी। क्योंकि दूध से जला हुआ व्यक्ति छाछ तक को फूंक-फूंक कर पीता है। उस समय चंदना के आँखों की संप्रेक्षा (दृष्टि) में अस्थिर और चंचल भाव डूबते उतराते हुए जैसे स्थिति को धारण किए हुए थे।
व्याख्या- जब व्यक्ति प्रथमतः असफल हो जाता है तो फिर आगे बड़ी सावधानी से प्रयाण करता है। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य की अभिव्यञ्जना महाकवि ने 'दूध का जला छाछ को फूंक कर पीता है' इस प्रसिद्ध सूक्ति के माध्यम से उद्घाटित किया है। विभावना विशेषोक्ति, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिंग, परिकर, संकर, संसृष्टि आदि अनेक अलंकार हैं। आश्वस्त कारण है लेकिन आँसू त्याग रूप कार्य का अभाव - विशेषोक्ति अलंकार । 'आँसू हैं ' इस कार्य का कारण भगवान् के गमन अभाव रूप कारण नहीं हैविभावना। पयसा.- अर्थान्तरन्यास।
दूध से जलना-कारण, छाछ को फूंककर पीना कार्य-काव्यलिंग अधृतितरला- साभिप्राय विशेषण-परिकर अलंकार, आश्चर्य का बिम्ब सुन्दर बना है। लोक-विश्वास, शकुन की मान्यता चित्रित है।
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