SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अश्रुवीणा । ११५ अवग्रह के द्वारा ग्रहण किए गये अत्यन्त अस्पष्ट ग्रहण को स्पष्ट करने के लिए उपयोग की परिणति को ईहा कहते हैं। यह होना चाहिए' इस प्रकार का ज्ञान ईहा कहलाता है। जैसे यह शब्द गुरु का होना चाहिए। अपोह-ईहा के बाद अपोह आता है। जिसके द्वारा संशय के कारणभूत विकल्प का निराकरण किया जाता है वह अपोह है 'अपोह्यते संशय निबन्धन विकल्पः अनया इति अपोहाः'-धवला। यह वही-इस प्रकार का ज्ञान अपोह (अवाय) कहलाता है। जैसे यह गुरु का शब्द है अन्य व्यक्ति का नहीं। भगवान्-जो भग-ऐश्वर्य श्री, ज्ञान, यश, लक्ष्मी आदि को धारण करता है वह भगवान् है। विशेष ज्ञान के लिए द्रष्टव्य लेखककृत भक्तामर सौरभ पृ. 246-248 लप्स्यते-बोलेंगे, स्वीकार करेंगे। अर्थान्तरन्यास अलंकार है। वहेरन्-वह धातु का आत्मने पद विधिलिङ्ग, प्रथमपुरुष, बहुवचन। (४२) अक्षजाने क्वचिदथ भवेत् संशयो व्यत्ययो वा, भावज्ञप्तौ मम न पृथुलस्तेन कार्यः प्रयत्नः। प्रत्यक्षेण प्रतिकृतिमिमां मानसीं द्रष्टुमिच्छेदेतत् कृत्वा चतुरविधिभिर्मीनमालम्बनीयम् ॥ अन्वय- अक्षजाने क्वचिदथ संशयो व्यत्ययो वा भवेत् तेन मम भावज्ञप्तौ पृथुलःप्रयत्नःन कार्यः।इमाम्मानसीम्प्रतिकृतिम् प्रत्यक्षेण द्रष्टुमिच्छेत् । एतत् कृत्वा चतुरविधिभिः मौनमालम्बनीयम्। अनुवाद- शब्दो! इन्द्रिय-ज्ञान में कहीं संशय अथवा व्यत्यय हो सकता है। इसलिए मेरे भावों की ज्ञप्ति में तुम अधिक प्रयत्न मत करना। भगवान् प्रत्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy