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________________ ११४/ अश्रुवीणा (४१) अग्रे चेतः स्फुरितमधुना भावि युष्मद्-ग्रहाय, सन्देहानां झटिति वसतिर्लङ्घनीयान्तराप्ता। सेहापोहं तदनु भगवांल्लप्स्यते निश्चयं वश्चिन्तापूर्व कृतपरिचया एव सख्यं वहे रन् । अन्वय- अधुना अग्रे स्फुरितम् चेतः युष्मद् ग्रहाय भावि। अन्तः आप्ता संदेहानाम् वसतिः झटिति लंघनीया। तदनु सेहापोहम् वः निश्चयम् भगवान् लप्स्यते । चिन्तापूर्वम् कृतपरिचया एव सख्यं वहेरन्। ___ अनुवाद- शब्दो! अब आगे भगवान् का स्फुरित (संवेगित) चित्त (मन) तुम्हें ग्रहण करने (लेने) आएगा। यदि (उसके साथ चलते हुए कहीं) बीच में संदेहों की नगरी आ जाए तो उसे शीघ्रता पूर्वक लांघ जाना। उसके बाद ईहा और अपोह के साथ भगवान् निश्चय ही तुम्हें ग्रहण करेंगे (अपनायेंगे)।क्योंकि प्रथमतः सोच-विचार कर परिचय करने वाले ही मैत्री का निर्वाह करते हैं। व्याख्या- यह श्लोक उपचारवक्रता का सुन्दर उदाहरण है। मूर्त के धर्म ग्रहण, स्फुरण, वसति (वस्ती) आदि का अमूर्त पदार्थ-शब्द, मन और संदेह पर आरोप किया गया है। संदेहानाम् वसति.-संदोहों की नगरी। नगरी तो द्रव्य, मूर्त की होती है, संदेहों पर आरोप है। अधुना-इस समय, अब। अधुना (पा. 5.3.17) सूत्र से इदम् शब्द का अधुना बना है । कालवाचक होने पर । स्फुरितम्-चंचल विक्षुब्ध, चेत्त-मन, हृदय। भावि= भविष्यति। सेहापोहम्-ईहा और अपोह के साथ। ईहा-मति ज्ञान का एक भेद । अवग्रह ईहा, अवाय और धारणा ये चार मति ज्ञान के भेद होते हैं। विषय और विषयी के सम्बन्ध को दर्शन कहते हैं, उसके अनन्तर होने वाले ज्ञान को अवग्रह कहते हैं। पदार्थ का ज्ञान अवग्रह है-- सर्वार्थ सिद्धि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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