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________________ ११० / अश्रुवीणा (३७) लोकस्यान्ता अविरलमितः स्पर्शनीयाः क्षणेन, पूर्णाकाशे तदनुविशदं रूपमालेखनीयम् । आशासेऽहं कथमपि न वा लप्स्यतेऽत्र प्रमादः, विश्व-व्रज्याकलितविशदज्ञानराशिं प्रयोक्तुम् ॥ अन्वय- इतः क्षणेन लोकस्यान्ता अविरलम् स्पर्शनीयाः तदनु पूर्णाकाशे विशदम् रूपम् आलेखनीयम् । अहं आशासे विश्वव्रज्याकलितविशदज्ञानराशिम् अत्र प्रयोक्तुम् न कथमपि प्रमादः लप्स्यते। अनुवाद- शब्दो! तुम यहां से क्षणभर में लोक मध्यभाग को घनिष्ठतापूर्वक स्पर्श करना, उसके बाद सम्पूर्ण आकाश में अपने स्पष्ट रूप को अंकित कर देना। मैं आशा करती हूँ कि विश्वभ्रमण से प्राप्त विशद ज्ञान राशि को भगवान् के सामने प्रयोग करने में थोड़ा भी प्रमाद मत करना। व्याख्या- चन्दनबाला दूत के गमन मार्ग का निर्देश कर रही है। पर्याय अलंकार है। एक के अनेक आधार-आकाश का मध्यभाग एवं सम्पूर्ण आकाश इसलिए पर्याय अलंकार है। एकं क्रमेणानेकस्मिन्पर्यायः - काव्यप्रकाश 10.180 अविरलम् अव्यय-घनिष्ठतापूर्वक, लगातार निर्बाधरूप से। विशदम् रूपम्= स्पष्ट आकृति को। विशदम् साभिप्राय विशेषण है इसलिए परिकर अलंकार है । उपसर्ग पूर्वक शदल शातने धातु से अच् प्रत्यय करने पर विशद शब्द बनता है। विशदः पाण्डरे व्यक्ते इति हैम: 3/337 विश्वव्रज्या= विश्वभ्रमण। व्रज्या-व्रज् धातु क्यय्+टाप्-घूमना, भ्रमण, इधर-उधर घूमना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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