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अश्रुवीणा / १०९
सद्यो-युष्माकम्, उपचारवक्रता का उदाहरण है। सद्यः, न, यत्, अहो आदि अव्यय पद हैं। समेत्य-प्राप्त कर, नजदीक जाकर । सम्-इ+ल्यपान विस्मरेयुः भूल न जाना। विधिलिङ् प्रथम पुरुष, बहुवचन का रूप है।
(३६)
भेदो भावी प्रथमसमये तत्र चिन्ता न कार्या, स्कन्धानन्यान् वियति विततान् प्राप्य यातव्यमग्रे। बाध-व्यूहो ध्रुवमुपनतः स्यात् प्रगत्याः प्रयाणे, सोत्साहास्तं परमपरतो योगमाप्त्वा तरन्ति ॥
अन्वय- प्रथम समये भेदो भावी। तत्र चिन्ता न कार्या। वियति विततान् अन्यान् स्कन्धान प्राप्य अग्रे यातव्यम्। प्रगत्या प्रयाणे बाधाव्यूहो ध्रुवमुपनतः स्यात्। सोत्साहाः परतो परमयोगम् आप्त्वा तं तरन्ति ।
अनुवाद- शब्दों! प्रयाण के प्रथम समय में ही तुम्हारा भेद (बिखराव) होगा, उस समय चिन्ता मत करना। आकाश में फैले हुए अन्य स्कन्धों को प्राप्त कर आगे बढ़ जाना। क्योंकि प्रगति (उत्थान) के लिए प्रस्थान करते समय बाधाएँ निश्चित ही आती हैं, लेकिन उत्साही मनुष्य दूसरों से पर्याप्त सहयोग प्राप्त कर बाधाओं को पार कर जाते हैं।
व्याख्या- इस श्लोक में चन्दना अपने संदेशवाहक शब्दों के लिए मार्ग गमन काल में उपस्थित होने वाले विघ्नों तथा मार्ग में सहयोग प्राप्त करने योग्य तथ्यों का निर्देश करती है। जब व्यक्ति अच्छे कार्य में प्रवृत्त होता है तो अनेक बाधाएँ आती हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति उन्हें वैसे ही पार कर जाता है जैसे संग्राम शीर्ष में वीर योद्धा।
इस श्लोक में काव्यलिंग अनुप्रास एवं अर्थान्तरन्यास अलंकारो की उपस्थिति है। अन्य स्कन्धों को प्राप्त कर आगे जाना - काव्यलिंग। कारण कार्यभाव। वियति विततान्-अनुप्रास। प्रगत्या-तरन्ति के द्वारा पूर्व के दो पंक्तियों का समर्थन किया गया है। अर्थान्तरन्यास और माधुर्य गुण है।
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