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________________ अश्रुवीणा । १०३ यस्मात् भूः क्षीण मूलान्वयानाम् न च त्राणम् भवति। अनुवाद- यह तुम्हारा स्नेहनिर्झर सर्वप्रथम देह (आखें) उसके बाद वस्त्र, मिट्टी, हवाएँ और आतप के द्वारा बाधित होगा। इसलिए यह तुम्हारा संगठित वंशपरम्परा (प्रवाह) शीघ्रता पूर्वक विजय प्राप्त करे (अपने कार्य में सफल हो), क्योंकि जिनकी धरती पर वंशपरम्परा क्षीण (समाप्त) हो चुकी है, उनका त्राण नहीं होता है (कोई रक्षा नहीं करता है।) व्याख्या--आंसुओं का अविच्छिन्त प्रवाह सर्वत्र सफल होता है आँसूओं की अविच्छिन्न प्रवाह परम्परा से कवि समाज-व्यवस्था या सामाजिक सफलता का सूत्र बता रहे है। संसार में वही व्यक्ति सफल होता है जिसकी उत्कृष्ट वंश परम्परा अविच्छिन्न होती है। मरने के बाद भी वे ही जीवित रहते हैं जिनकी योग्य आनुवांशिकता जीवित होती है। कवि अपने दूत को बाधाओं से सावधान कर रहा है । हे आतूंओं तुम्हारा प्रथम विरोधी तुम्हारा अपना निवास अर्थात् आखें ही होगी क्योंकि आँखें तुम्हें अपने में समेटकर रोक लेंगी।साधक को सचेत कर रहा है कि श्रेयस्कर में प्रथम बाधा अपना ही होता है। राग, मोह, क्रोध- ये सब अपने हैं, और सबसे खतरनाक इदम्-एव, जब तुम्हारा यह स्नेह रूप निर्झर प्रवाहित होगा तो प्रथम बाधा देह (आखें) ही करेगा उसके बाद वस्त्रादि बाधक बनेंगे। लेकिन अपने कार्य में वह सफल होता है जो लाख विघ्नों के आक्रमण होने पर भी अडोल होकर अपने लक्ष्य के प्रति सयत्न रहता है। वही श्रेष्ठ पुरुष होता है। नीतिशतक-में निर्दिष्ट है। विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारभ्यचोत्तमजना न परित्यजन्ति । नीतिशतक 27 अर्थात् विघ्नों के द्वारा बार-बार घातित किए जाने पर भी उत्तम पुरुष कार्य को आरम्भ कर मध्य में नहीं छोड़ते। आरब्धे हि सुदुष्करे महतां मध्ये विरामः कुत:-कथासरित्सागर महान् पुरुष सुदुष्कर कार्य को आरंभ कर बीच में नहीं छोड़ते। विहङन्तं पि समत्था ववसायं पुरिसदुग्गमं णेन्ति वहम्-सेतुवन्ध 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only WW www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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