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१०२ / अश्रुवीणा
(२९) अन्तस्तापो बत भगवते सम्यगावेदनीयो, युष्मद्योगः सुकृतसुलभः संशये किन्तु किञ्चित्। नित्याप्रौढाः प्रकृतितरला मुक्तवाते चरन्तः,
शीतीभूता ह्यपि च पटवः किं क्षमाभाविनोऽत्र। अन्वय- बत! भगवते अन्तस्तापो सम्यग् आवेदनीयः। युष्मद् योग सुकृत सुलभः किन्तु किंचित् संशये। क्षमाभाविनो पटवः अपि मुक्तवाते चरन्तः किम् अत्र शीतीभूता। नित्याप्रौढा प्रकृतितरला।
अनुवाद- आँसुओ! भगवान् से मेरी अन्त:व्यथा को सम्यक् रूप से निवेदित करना। तुम्हारा योग पुण्य कर्मों (के प्रभाव) से ही सुलभ होता है। किन्तु मुझे कुछ संशय है कि तुम खुली हवा में संचरन करते हुए कहीं ठंडे मत पड़ जाना (सूख मत जाना) तुम कुशल और क्षमाभावी होते हुए भी क्या मेरा कार्य कर सकोगे? क्योंकि तुम्हारी नित्य-लघु आकृति है और तुम स्वभाव से कोमल हो। ___ व्याख्या- आँसुओं के स्वभाव का वर्णन कवि ने सुन्दर ढंग से किया है। परिकर अलंकार और उपचारवक्रता का अच्छा योग हुआ है। माधुर्य गुण है। मानवीय स्वभाव का चित्र अवलोकनीय है। नित्याप्रौढा प्रकृतितरला-परिकर अलंकार।
(३०) पूर्व देह स्तदनु वसनं मृद -मरुच्चातपोऽपि, युष्मत् स्नेह-प्रवह णमिदं संविरोत्स्यन्त एव तस्माद् भूयाद् विजयजवि तत् संहतञ्चानुवंशं,
त्राणं यस्माद् भवति न च भू:क्षीणमूलान्वयानाम्॥ अन्वय- इदम् युष्मत्स्नेहप्रवहणम् पूर्वं देह ः तदनुवसनम् मृद्-मरूच्चात पोऽपि संविरोत्स्यन्त एव। तस्मात् तत् संहतम् अनुवंशम् विजयजवि भूयात् ।
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