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ओम् : ११७
उन सबको जानना जरूरी होता है। ओंकार एकाक्षरी मंत्र है। यह कामना की पूर्ति करने वाला और मोक्ष देने वाला—दोनों है। इससे प्राणशक्ति का विकास होता है, इसलिए कामना पूरी होती है। इससे चित्त निर्मल होता है, इसलिए यह मोक्ष देने वाला है। हम किसी मंत्र की विशेषता से प्रभावित होकर उसका जप शुरू कर देते हैं। किन्तु समग्र जानकारी के अभाव में पूरा लाभ नहीं उठा पाते। मंत्र के जप का पहला तत्त्व है-उच्चारण कैसे करें ? जब तक उच्चारण की बात समझ में नहीं आती तब तक उससे जो होना चाहिए, वह नहीं होता। शब्द-शास्त्र के अनुसार उच्चारण के आठ स्थान हैं—वक्ष, कंठ, सिर, जिह्वामूल, दांत, नासिका, ओष्ठ और तालु । किन्तु यह बात बहुत स्थूल जगत् की बात है। इससे पहले वह उच्चारण न जाने कितनी अवस्थाओं को पार कर जाता है। उसका प्रारंभ मूलाधार या शक्तिकेन्द्र से होता है। फिर वह तैजस-केन्द्र, आनन्द-केन्द्र और विशुद्धि-केन्द्र को पार कर तालु के पास आता है और दर्शन-केन्द्र-भृकुटि के मध्य तक पहुंच जाता है। उस स्थिति में उसकी तेजस्विता प्रकट होती है। उच्चारण के बारे में सम्यग्ज्ञान नहीं होता है तो जप से जिस लाभ की आशा की जाती है, वह घटित नहीं होता। मंत्र-शास्त्र वतलाते हैं—भाष्य-जप से जो लाभ होता है उससे हजार गुना लाभ अन्तर् जप से होता है और अन्तर् जप से जो लाभ होता है, उससे हजार गुना लाभ मानसिक जप से होता है। लाभ की दूसरी स्थिति है भावना का नियोजन । जप के साथ हमारा भावात्मक नियोजन कैसा है ? यदि हम केवल शब्द के साथ चलें, अर्थ की भावना न करें तो जो लाभ मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता। जप की यात्रा शब्द से शरू होती है। फिर शब्द छट जाता है, केवल अर्थ शेष रह जाता है। हम श्रोतृ भावना को छोड़कर आर्थी भावना तक पहुंच जाते हैं—ज्ञानात्मक स्थिति में पहुंच जाते हैं। उस समय मंत्र चैतन्य होता है—मंत्र का जागरण होता है, उसकी तेजस्विता प्रकट होती
है।
___ ओंकार के साथ रंगों का समायोजन करने से उसका जप और शक्तिशाली हो जाता है। शांति, पुष्टि और मोक्ष के लिए यदि ओंकार का जप करना है तो श्वेतरंग के ओंकार का जप किया जाता है। विभिन्न चैतन्य-केन्द्रों को जागृत करने के लिए विभिन्न रंगों के ओंकार का जप
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