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महामंत्र : निष्पत्तियां-कसौटियां : १०५
अत्यधिक शीत का अनुभव होता है। और भी अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं। ये सारे अनुभव संकल्पशक्ति, वर्णशक्ति या प्रेक्षाशक्ति के परिणाम हैं। ये अनुभव बहुत बड़े अनुभव नहीं हैं। ये परिणाम प्रारंभिक हैं। ये बहुत बड़ी उपलब्धियां नहीं हैं। जब हमने यह मान लिया कि हमारे स्थूल शरीर के भीतर तैजस शरीर बैठा है, तेज का पुंज विद्यमान है, उसके जागरण से यदि कुछ प्रकाश मिल जाए तो कौन-सी बड़ी बात है ? कोई बड़ी बात नहीं है। यह जो नहीं दीखती है, वह बड़ी बात है। जो दीखती है वह बड़ी बात नहीं है। जब हम बाहर ही बाहर देखते हैं, मन को भीतर ले जाते ही नहीं, मन को दौड़ाते ही रहते हैं, कभी रोकते नहीं, तब कुछ भी दिखाई नहीं देता। जब हम मन की दिशा को मोड़ देते हैं, वाहर से भीतर ले जाते हैं, उसकी दौड़ को समाप्त कर उसे एक खूटे-से बांध देते हैं, तब वह प्रकाश दीखना सामान्य हो जाता है । यद्यपि यह सामान्य-सी बात है, फिर भी इसका अपना महत्त्व है, क्योंकि इससे आदमी का दृष्टिकोण बदल जाता है। आदमी की श्रद्धा गाढ़ हो जाती है, आस्था दृढ़ हो जाती है। जब तक अपना कोई अनुभव नही होता तब तक आदमी को लगता है कि उसकी साधना फल नहीं ला रही है। अनुभव छोटा हो या बड़ा, वह बहुत काम का होता है। __जीवन की दिशा का परिवर्तन और दृष्टिकोण का परिवर्तन---यह प्रेक्षाध्यान का प्रयोजन है। प्रेक्षा-ध्यान से यह घटित होता है। मंत्र की आराधना भी प्रेक्षा-ध्यान का ही एक अंग है। प्रेक्षा-ध्यान की पूरी प्रक्रिया दृष्टिकोण बदलने की प्रक्रिया है। जब दृष्टि बदल जाती है तव जीवन की दिशा अपने-आप बदल जाती है, कुछ भी उपदेश की जरूरत नहीं होती।
मैंने यह अनुभव किया है कि साधना से सचमुच व्यक्ति बदल जाता है। यह बदलाव घटित होता है आन्तरिक परिवर्तन से । व्यक्ति अनुभव के क्षण में जाग जाता है। अनुभव के आगे तर्क चलता नहीं। व्यक्ति कितना ही पढ़ा-लिखा या तार्किक हो, जब वह एक अनुभव की स्थिति से गुजर जाता है, तब उसके सारे तर्क निरस्त हो जाते हैं। अनुभव को उसे स्वीकार करना ही पड़ता है। तर्क उस अनुभव को नहीं काट सकते। एक व्यक्ति तर्क को सहारा बनाकर चला। साधना का क्रम चलता रहा। दो-चार दिन उसे कुछ भी हाथ नहीं लगा। एक दिन ध्यान-काल में
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