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६८ : एसो पंच णमोक्कारो
है और न शोक का मैल होता है। कोई मैल नहीं रहता। सारे मैल धुल जाते हैं। न राग का मैल और न द्वेष का मैल । मन बिलकुल निर्मल और प्रसन्न । ____ महामंत्र की आराधना की पहली निष्पत्ति या पहला परिणाम है—मन की प्रसन्नता, चित्त की निर्मलता। ___ इसका दूसरा परिणाम है--चित्त की सन्तुष्टि । विना किसी उपलब्धि के भी मन संतुष्ट हो जाता है। जो संतोष पदार्थ की उपलब्धि के पश्चात् होता है, कुछ मिलने पर होता है, वह वास्तव में संतोष नहीं होता, वह एक वासना की तृप्तिमात्र होता है। तृप्ति के साथ अतृप्ति जुड़ी होती है। जहां तृप्ति होगी, वहां कुछ समय के बाद अतृप्ति भी होगी। पानी पीया। प्यास बुझ गई। एक घंटा बीता, दो घंटे बीते, फिर प्यास लग जाएगी। तृप्ति के साथ अतृप्ति जुड़ी ही रहती है। किंतु तोष के साथ, संतोष के साथ कुछ भी जुड़ा नहीं रहता। पदार्थ की उपलब्धि के बिना भी मन संतोष से इतना भर जाता है कि सारी चाह मिट जाती है, कुछ भी नहीं चाहिए।
मानसिक तोष मंत्र की दूसरी निष्पत्ति है।
इसी प्रकार मंत्र की आराधना से स्मृतिशक्ति का विकास होता है, वौद्धिक शक्तियों का विकास होता है और अनुभव की चेतना जागती है। ये मानसिक निष्पत्तियां हैं जो प्रत्यक्ष अनुभव में आती हैं।
मंत्र की आराधना का शरीर पर भी प्रभाव होता है। मंत्र की आराधना जैसे-जैसे विकसित होने लगती है, अनायास ही व्यक्ति की आंखों में आंसू उछल पड़ते हैं। शरीर रोमांचित हो जाता है। कंठ गद्गद हो जाता है। वाणी भारी-सी हो जाती है। ये शारीरिक लक्षण प्रकट होने लगते हैं। वास्थ्य का भी परिवर्तन होता है। .
जप करने वाला या मंत्र की आराधना करने वाला व्यक्ति क्षय, अरुचि अग्नि की मंदता आदि-आदि बीमारियों पर नियंत्रण पा लेता है। बीमारियां समाप्त हो जाती हैं। ___ एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि जहां मानसिक उपलब्धियों का प्रश्न है, मैं अपने अनुभव के बल पर कह सकता हूं कि ये उपलब्धियां होती हैं, किंतु जहां तक शारीरिक उपलब्धियों का प्रश्न है, मैंने इस दिशा में अभी तक कोई प्रयोग नहीं किया है इसलिए मैं अपने अनुभव के आधार
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