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कर्म-फल भोगने की कला
भारतीय साहित्य में पुरुषों के लिए ४६ कलाएं और स्त्रियों के लिए ७२ कलाएं मानी गई हैं। स्वस्थ जीवन जीने के लिए कलाओं का बड़ा मूल्य है। जो व्यक्ति कला का मूल्यांकन करना नहीं जानता, वह सरस जीवन जीने का मल्यांकन नहीं कर सकता। स्फति, आनन्द, प्रसन्नताइन सबके लिए कला को आवश्यक माना जाता है। एक आचार्य ने लिखा-जो व्यक्ति सारी कलाओं को जानता है परन्त धर्म की कला को नहीं जानता, उसकी सारी कलाएं व्यर्थ हैं। यह धर्म की कला क्या है, जिसको जाने बिना सारी कलाएं व्यर्थ और अर्थहीन बन जाती हैं? इस धर्म-कला को एक वाक्य में अभिव्यक्ति दी जाए तो वह है कर्म-फल भोगने की कला। धर्म की कला __जो व्यक्ति कर्म-फल भोगने की कला को जानता है, वह व्यक्ति धर्म की कला को जानता है। जो कर्म-फल को भोगना नहीं जानता, वह धर्म की कला को नहीं जानता। इसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है जो बन्धन से मुक्ति पाने की कला को जानता है, वह धर्म की कला को जानता है। कर्म का बन्धन होता है राग और द्वेष से। पुण्य का फल उदय में आया तो राग पैदा हो गया, पाप का फल उदय में आया तो द्वेष पैदा हो गया। राग, द्वेष, पुण्य और पाप-इस श्रृंखला का कभी अन्त नहीं होता। आदमी पुण्य का फल भोगता हुआ उन्मत्त हो जाता है। वह पाप का फल भोगता है तो घृणा करता है। पुण्य का फल भोगता है तो राग को बल मिलता है। पाप का फल भोगता है तो द्वेष को बल मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि राग और द्वेष का अस्तित्व बनाए रखने के लिए कई ऐसे माध्यम मिल गए हैं इसीलिए पुण्य और पाप आदमी को बराबर बंधन में बांधे हुए हैं। जब तक आदमी कर्म-फल भोगने की कला नहीं सीखेगा तब तक इस बन्धन की श्रृंखला को तोड़ा नहीं जा सकेगा।
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